________________
भगवई
काएणं, अहापणिहिएहिं गत्तेहिं, सव्विंदिएहिं गुतेहिं एगराइवं महापडिमं उपसंपन्जेत्ता नं विहरामि ॥
१. सूत्र १०५
महाप्रतिमा
भगवती, ३/१०५ दोवि पाए साहट्टु वग्घारियपाणी एगपोग्गलनिविदिट्टी अणिमिसणयणे ईसि पब्भाएगएणं काएणं अहापणिहिएहिं गत्तेहिं सधिदिएहिं गुत्तेहिं ।
प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर द्वारा स्वीकृत महाप्रतिमा का उल्लेख
पूरणस्स चमरत्त-पदं १०६. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरचंचा रायहानी अनिंदा अपुरोहिया या वि होत्या ।
१०७. तए णं से पूरणे बालतवरसी बहुपडि पुण्णाई दुबालसवासाई परियागं पाणिता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता, सट्ठि
४७
प्रणिहितैः गात्रैः सर्वेन्द्रियैः गुप्तैः एकरात्रिकीं महाप्रतिमाम् उपसंपद्य विहरामि ।
भगवान महावीर ने तेले (तीन दिन के उपवास) में एकरात्रिकी महाप्रतिमा स्वीकार की थी। मुनि गजसुकुमाल ने दीक्षा के प्रथम दिन महाकाल श्मशान में एकरात्रिकी महाप्रतिमा स्वीकार की थी दसाओ में 'महप्रतिमा' नाम निर्दिष्ट नहीं है। वहां एकरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा का निर्देश है। वह भी तेले में स्वीकार की जाती है। ऊपर की तालिका को देखने से ज्ञात होता है कि एकरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा और एकरात्रिकी महाप्रतिमा दोनों में केवल नाम-भेद है, स्वरूप भेद नहीं है।
१. आयारो, ६/१/५ ।
२. अयोगव्यवच्छेदिका, २०
२. एक पुद्गल पर दृष्टि टिका, नेत्रों को अनिमेष बना
दृष्टि को निश्चल बनाना और उसे किसी एक पुद्गल पर निविष्ट करना इसे जैन ध्यान पद्धति में 'अनिमेष प्रेक्षा' कहा जाता है। भगवान् महावीर इसका बहुत प्रयोग करते थे।' तन्त्रशास्त्र और हठयोग में इसे त्राटक कहा जाता है। यहां पद्गल का अर्थ अपने शरीर का अवयव या बाहरी वस्तु हो
३. घेरण्डसंहिता, ३/६४
भाष्य
है। अंतगडदखाओ में भी एक रात्रि की महाप्रतिमा का उल्लेख मिलता है। भिक्षु की बारह प्रतिमाओं में अहोरात्र की बारहवीं प्रतिमा है। इससे महाप्रतिमा की तुलना होती है।
Jain Education International
एक रात्रि की महाप्रतिमा
अंतगडदसाओ, ३/८/८८ - ईसिं पब्भा रगएणं कारणं वग्घारियपाणी..... दोवि पाए साहट्टु अणिमिसणयणे सुक्कपोग्गलनिरु द्धदिट्टी ।
वपुश्च पर्यङ्कशयं श्लथं च दृशी च नासानियते स्थिरे च । न शिक्षितेयं परतीर्थनाथे, जिनेन्द्र मुद्रापि तवान्यदास्ताम् ॥
पूरणस्य चमरत्व-पदम्
तस्मिन् काले तस्मिन् समये चमरचञ्चा राजधानी अनिन्द्रा अपुरोहिता चापि आसीत्।
सकता है । नासाग्र या भृकुटि पर दृष्टि को अनिमेष करना ध्यान का महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। आचार्य हेमचन्द्र ने नासाग्र पर अनिमेष दृष्टि को जिनेन्द्र मुद्रा का एक लक्षण माना है। भृकुटि पर अनिमेष दृष्टि टिकाने को शाम्भवी मुद्रा कहा जाता है।
शब्द-विमर्श
ततः स पूरणः बाल-तपस्वी बहुप्रतिपूर्णानि ततः स पूरणः बाल-तपस्वी बहुप्रतिपूर्णानि द्वादशवर्षाणि पर्याय प्राप्य मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषयित्वा षष्टिं भक्तानि अनशनेन
श.३ उ.२ सू. १०५-१०७
अवयवों को अपने-अपने स्थान पर सम्यक नियोजित कर सब इन्द्रियों को संवृत बना एक रात की महाप्रतिमा को स्वीकार कर विहरण करता है।
अष्टमभक्त - तीन दिन का उपवास ।
वग्घारिय- यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है प्रलम्बित । इस अर्थ में 'वापारि' और 'वाघारिय' शब्द भी मिलते है।"
५
प्राग्भार ---अगला भाग, शिखर । वृत्तिकार ने इसका अर्थ अग्रतोमुख यानी अवनतत्व किया है।"
यथाप्रणिहित - यथास्थान में नियोजित।
भिक्षु की बारहवीं प्रतिमा
दसाओ, ७/३३ - दो वि पाए साहछु वग्घारियपाणिस्स एगपोग्गलनिरुद्ध - दिट्टिस्स अणिमिसणयणस्स ईसिं पब्भारगतेणं काएणं अहापणिहितेहिं गत्तेहिं सव्विदिएहिं गुत्तेहिं ।
४. देशीशब्दकोष ।
For Private & Personal Use Only
पूरण का चमरत्व पद
१०६. उस काल और उस समय चमरचञ्चा राजधानी इन्द्र और पुरोहित से रिक्त थी।
नेत्रानं समालोक्य, आत्मारामं निरीक्षयेत् । सा भवेच्छाम्भवी मुद्रा, सर्वतन्त्रेषु गोपिता ॥
१०७. वह बालतपस्वी पूरण पूरे बारह वर्ष के लापस पर्याय का पालन कर एक मासकी संलेखना से अपने आपको कृश बना कर, अनशन के द्वारा साठ भक्तों
५. आप्टे प्रारभार - the front part fore part. top or summit of a mountain. ६. भ. वृ. ३/१०५ प्राग्भारः - अग्रतोमुखभवनतत्वम् ।
www.jainelibrary.org