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श.३ उ.२ सू. १०४, १०५
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धन्नेषं मंगल्लेणं सस्सिएणं उदग्गेणं उदत्तेनं उत्तमेणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक् जाव धमणिसंत जाए, तं अत्थि जा में उड़ाने कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार परक्कमेतावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणी जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते वेमेलस्स सण्णिवेसस्स दिट्ठाभट्ठे य पासंडत्थे य गिहत्थे य पुव्वसंगतिए य परियायसंगतिए य आपुच्छिता बेमेतरस सष्णिवेसस्स ममन्येणं निग्गच्छित्ता, पादुग- कुंडिय-मादीयं उवगरणं चउप्पुडयं दारुमयं च पडिग्गहगं एगंते एडित्ता, बेभेलस्स सणिवेसस्स दाहिणपुरत्यिमे दिसीभागे अद्धनियत्तणिय-मंडलं आलिहित्ता संलेहणाझूसणा-झुसियस्स भत्तपाणपडियाक्खियरस पाओवगयस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए ति कट्टु एवं संपेढे, संपेता कल्लं पाउप्पभाषाए रवणीए जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते बेभेले सष्णिवैसे विद्वाभय पासंहत्थे व गिहत्थे य पुव्वसंगतिए व परियावसंगतिए य आपुच्छ, आपुच्छित्ता बेभेलस्स सण्णिवेसस्स मज्झंमज्झेणं निग्गच्छ, निग्गच्छित्ता पादुग-कुंडियमादीयं उवगरणं दारुमयं च परिग्गहगं एंगते एडेइ, एडित्ता बेभेलस सण्णिवेसस्स दाहिणपुरत्यिमे दिसीमागे अन्दनियत्तणियमंडल आलिहिता संलेहना झूसणा-सिए मत्तपाणपडियाइखिए पाओदवगमणं निवण्णे ॥
भगवओ एगराइया महापडिमा पर्द १०५. तेगं कालेणं तेणं समएणं अहं गोवमा! छउमत्थकालियाए एवकारसवासपरियाए छ छट्टेणं अणिक्खित्तेगं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाशुगामं दुइजमाणे जेणेव सुंसुगारपुरे नगरे जेणेव असोयसंडे उज्जाणे जेणेव असोयवरपायवे जेणेव पुढवीसिलावट्टए तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स हेट्ठा पुढवीसिलावट्टयंसि अट्ठमभत्तं पगिण्हामि दो वि पाए साहट्टु वग्घारियपाणी एगपोग्गल - निविट्ठदिट्ठी अणिमिसणयणे ईसिपब्भारगएणं
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धन्येन मांगल्येन सश्रीकेण उण उदात्तेन उत्तमेन महानुभागेन तपःकर्मणा शुष्कः रूक्षः यावद् धमनिसन्ततः जातः तद् अस्ति यावन् मे उत्थानं कर्म वलं दीर्य पुरुषकार पराक्रमः तावन् मे श्रेयः कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावद् उत्थिते सूर्ये सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा ज्वलति बेमेतस्य सन्निवेशस्य दृष्टाभाषितान् च पाषण्डस्थान् च गृहस्थान् च पूर्वसांगतिकान् च पर्यायसांगतिकान् च आपृच्छय बेमेत्तस्य सन्निवेशस्य मध्येमध्येन निर्गम्य पादुकाकुण्डिकादिकम् उपकरणं चतुष्पुटकं दारुमयं च प्रतिग्रहकम् एकान्ते एडयित्वा बेभेलस्थ सन्निवेशस्य दक्षिण- पीरस्त्ये दिग्भागे अर्द्धनिवर्तनिक- मण्डलम् आलिख्य संलेखना - जोषणा-भूषितस्य प्रत्याख्यात भक्तपानस्य प्रायोपगतस्य कालम् अनवकांक्षतः विहर्तुम् इति कृत्वा एवं सधते समय कल्पं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावद् उत्थिते सूर्ये सहस्ररश्मी दिनकरे तेजसा ज्वलति बेभेले सन्निवेशे दृष्टाभाषितान् च पाषण्डस्थान् च गृहस्थान् च पूर्वसांगतिकान् व पर्यायसांगतिकांश्च आपृच्छति, आपृच्छ्य बेभेलस्य सन्निवेशस्य मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गम्य पादुका कुण्डिकादिकम् उपकरणं चतुपुटकं दारुमयं च प्रतिग्रहकम् एकान्ते एडयति एडयित्वा बेभेलस्य सन्निवेशस्य दक्षिण - पौरस्त्ये दिग्भागे अर्द्धनिवर्तनिकमण्डलम् आलिख्य संलेखना - जोषणा - जुषितः प्रत्याख्यात-भक्तपानः प्रायोपगमनं निपन्नः ।
भगवतः एकरात्रिकी महाप्रतिमा-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये अहं गौतम ! छद्मस्थकालिके एकादशवर्षपर्याये पष्ठ-षष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपः कर्मणा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं द्रवन् यत्रैव सुकुमारपुरं नगरं यत्रैव अशोकषण्डम् उद्यानं, यत्रैव अशोकवरपादपः यत्रैव पृथिवीशिलापट्टकः तत्रैव उपागच्छामि, उपागम्य अशोकवरपादपस्य अधः पृथिवीशिलापट्टके अष्टमभक्तं प्रगृहामि, द्वावपि पादौ संहृत्य 'वग्घारिय' पाणिः एकपुद्गलनिविष्टदृष्टिः अनिमिषनयनः ईषत्प्राग्भारगतेन कायेन यथा
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भगवई
उत्तम और महान् प्रभावी तपः कर्म से सूखा, रूखा, यावत् धमनियों का जालमात्र हो गया हूं। अतः जब तक मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुष कार- पराक्रम है, तब तक मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं कल उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर बेमेल सन्निवेश में जिन्हें देखा है, जिनके साथ बातचीत की है, उन पाषण्डस्थों (श्रमणों), गृहस्थों, तापस जीवन की स्वीकृति से पूर्व परिचितों तथा तापस जीवन में परिचितों को पूछ कर बेमेल सन्निवेश के मध्यभाग से गुजर कर पादुका, कमण्डलु आदि उपकरण तथा चतुष्पुटक काष्ठमय पात्र को एकान्त में छोड़ कर बेमेल सन्निवेश के दक्षिण-पूर्व दिग्विभाग (आग्नेयकोण) में अर्ध निवर्तनिक मण्डल का आलेखन कर संलेखना ( अनशन से पूर्वकालिक तपस्या) की आराधना से युक्त हो कर, भोजन-पानी का त्याग कर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ रहूं, ऐसी संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहसारश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर बेभेल सन्निवेश में जिन्हें देखा है, जिनके साथ बातचीत की है, उन पाषण्डस्थों (श्रमणो और गृहस्थों तापस जीवन की स्वीकृति से पूर्व परिचितों और तापस जीवन में परिचितों को पूछता है, पूछ कर बेभेल सन्निवेश के मध्यभाग से निर्गमन करता है, निर्गमन कर वह पादुका, कमण्डलु आदि और 'चतुष्पुटक काष्ठमय पात्र को एकान्त स्थान में छोड़ देता है, छोड़ कर बेभेल सन्निवेश के दक्षिण-पूर्व दिग्विभाग में अर्धनिवर्तनिक मण्डल का आलेखन करता है, आलेखन कर वह संलेखना- आराधना से युक्त हो कर भोजन-पानी का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन में उपस्थित हो गया।
उपकरण
भगवान की एकरात्रिकी महाप्रतिमा का पद
१०५. गीतम उस काल और उस समय में छद्म' ! स्थ अवस्था की ग्यारह वर्षीय दीक्षा - पर्याय में था । तब मैं बिना विराम षष्ठ-भक्त तपःकर्म, संयम और तप से आत्मा को भावित करता हुआ क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम में परिव्रजन करता हुआ जहां सुंसुमारपुर, अशोकषण्ड उद्यान, प्रवर अशोक वृक्ष और पृथ्वीशिलापट्ट हैं, वहां आता हूं। वहां आ कर मैं प्रवर अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वी- शिलापट्ट पर तीन दिन का उपवास ग्रहण करता हूं। दोनों पैरों को सटा, दोनों हाथों को लम्बित कर एक पुद्गल पर दृष्टि टिका, नेत्रों को अनिमेश बना मुंह आगे की ओर झुका,
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