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________________ भगवई ४५ श.३ : उ.२ : सू.१०२-१०४ पव्वज्जाए पव्वइत्तए। पब्बइए वि यणं समाणे प्रव्रजितोऽपि सन् इममेतद्रूपम् अभिग्रहम् इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि- अभिग्रहिष्यामि-कल्पते मे यावज्जीवं षष्ठ- कप्पइ मे जावज्जीवाए छटुंछट्टेणं अणिक्खि- षष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा ऊर्ध्वं बाहून तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिल्झिय- प्रगृह्य-प्रगृह्य सूर्याभिमुखस्य आतापनभूम्याम् पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आतपतः विहर्तुम्। षष्ठस्यापि च पारणे आयावेमाणस्स विहरित्तए, छट्ठस्स वि य णं आतापनभूम्याः प्रत्यवरुह्य स्वयमेव चतुष्पुटकं पारणयंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुभित्ता दारुमयं प्रतिग्रहकं गृहीत्वा बेभेले सन्निवेशे सयमेव चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहगं गहाय उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य बेभेले सण्णिवेसे उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं भिक्षाचर्यया अटित्वा यन् मे प्रथमे पुटके पतति, घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्ता जं मे कल्पते मे तत् पथि पथिकेभ्यः दातुम् । यन् पढमे पुडए पडइ, कप्पइ मे तं पंथे पहियाणं मे द्वितीय पुटके पतति, कल्पते मे तत् काकदलइत्तए। जं मे दोच्चे पुडए पडइ, कप्पइ मे शुनकेभ्यः दातुम्। यन् मे तृतीये पुटके पतति, तं काग-सुणयाणं दलइत्तए। जं मे तच्चे पुडए कल्पते मे तन् मत्स्य-कच्छपेभ्यः दातुम्। यन् पडइ, कप्पइ मे तंमच्छ-कच्छभाणं दलइत्तए। मे चतुर्थे पुटके पतति, कल्पते मे तद् आत्मना जं मे चउत्थे पुडए पडइ, कप्पइ मे तं अप्पणा आहारम् आहर्तुम् इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, आहारं आहारेत्तए-त्ति कटु एवं संपेहेइ, संप्रेक्ष्य कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां तच्चैव संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए तं चेव निरवशेषं यावद् यत् तस्य चतुर्थे पुटके पतति, निरवसेसं जाव जं से चउत्थे पुडए पडइ, तं तद् आत्माना आहारम् आहरति। अप्पणा आहारं आहारेइ ॥ पुत्र को पूछकर स्वयं चतुष्पुट काष्टमय पात्र ग्रहण कर, मुण्ड हो कर दानामा' प्रव्रज्या से प्रव्रजित होना मेरे लिए श्रेयस्कर है। प्रव्रजित हो कर में इस आकार वाला यह अभिग्रह स्वीकार करूंगा-मैं जीवन भर निरन्तर बेले-बेले (दो-दो दिन के उपवास) की तपःसाधना करूंगा। मैं आतापना-भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठा कर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ विहार करूंगा। बेले के पारणे में मैं आतापना-भूमि में उतर कर स्वयं चतुष्पुट काष्ठमय पात्र ग्रहण कर बेभेल सन्निवेश के ऊंच, नीच और मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षाचारी के लिए पर्यटन करूंगा। मेरे पात्र के प्रथम पुट में जो भिक्षा डाली जाएगी वह मार्ग में समागत पथिकों को दूंगा। मेरे पात्र के दूसरे पुट में जो भिक्षा डाली जाएगी वह मैं कौवों और कुत्तों को दूंगा। जो मेरे पात्र के तीसरे पुट में डाली जाएगी वह मछलियों और कछुओं को दूंगा। मेरे पात्र के चौथे पुट में जो डाली जाएगी वह आहार मेरे लिए कल्पनीय होगा। इस प्रकार सोच कर वह संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर उषाकाल में रात्रि के पौ फटने पर उस सम्पूर्ण पूर्वोक्त विधि का पालन करता हुआ यावत् उसके पात्र के चौथे पुट में जो भिक्षा डाली जाती है, उसका वह स्वयं आहार करता है। भाष्य १. दानामा गृहपति पूरण द्वारा स्वीकृत प्रव्रज्या। इसमें दान और आहार की विशेष विधि निर्दिष्ट है। दानामा प्रव्रज्या स्वीकार करने वाला चार पुट वाला काष्ट-पात्र अपने पास रखता है। पहले पुट में जो भिक्षा डालता है, उसे वह पथिकों को दे देता है। दूसरे पुट में डाली जाने वाली भिक्षा को वह कौवों और कुत्तों को दे देता है। तीसरे पुट में डाली जाने वाली भिक्षा को वह मत्स्य आदि कुत जन्तुओं को देता है। चौथे पुट में डाली जाने वाली भिक्षा को वह स्वयं खाता है। १०३. तए णं से पूरणे बालतवस्सी तेणं ओरालेणं ततः सः पूग्णः बालतपस्वी तेन 'ओरालेणं' विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बालतवोकम्मेणं विपुलेन प्रदत्तेन प्रगृहीतेन बालतपःकर्मणा सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठि चम्मावणद्धे शुष्कः रूक्षः निर्मासः अस्थि-चावनद्धः किटिकिडिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए यावि किटिकाभूतः कृशः धमनिसन्ततः जातश्चापि होत्था ॥ आसीत्। १०३. वह बालतपस्वी पूरण उस प्रधान, विपुल अनुज्ञात और प्रगृहीत बालतपः कर्म से सूखा, रूखा, मांस-रहित चर्म से वेष्टित अस्थि वाला, उठते-बैठते समय किटकिट शब्द से युक्त, कृश और धमनियों का जालमात्र हो गया। पूरणस्स पाओवगमण-पदं पूरणस्य प्रायोपगमन-पदम् पूरण का प्रायोपगमन-पद १०४. तए णं तस्स पूरणस्स बालतवस्सिस्स ततस्तस्य पूरणस्य बालतपस्विनः अन्यदा १०४. किसी एक दिन मध्यरात्रि में अनित्य-जागरिका अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कदाचित् पूर्वरात्रापरात्रकालसमये अनित्य- करते हुए उस बाल तपस्वी पूरण के मन में यह इस अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे जागरिकां जाग्रतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुद- मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मैं इस विशिष्ट रूप समुपज्जित्था-एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणं पादि-एवं खलु अहम् अनेन 'ओरालेणं' वाले प्रधान, विपुल, अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव, विपुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएण कल्लाणेणं सिवेणं विपुलेन प्रदत्तेन प्रगृहीतेन कल्याणेन शिवेन धन्य, मंगलमय, शोभायित, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदात्त, Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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