SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श. ३: उ. २ सू.१००-१०२ १. विन्ध्यपर्वत विन्ध्यपर्वत वर्तमान मध्यप्रदेश दक्षिणापथ की सीमा पर स्थित है। १०१. तत्य णं भेले सग्णिवेसे पूरणे नाम गाहावई परिवसई - अड्ढे दित्ते जाव बहुजणस्स अपरिभू या वि होत्था ॥ पूरणस्स दाणामा पवज्जा-पदं १०२. तए णं तस्स पूरणस्स गाहावइस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंब - जागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - अत्थिता मे पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणफलवित्तिविसे से, जेणाहं हिरण्णेणं बडागि, सुवणेण वद्धामि धणं वड्ढामि, धणेणं वड्ढामि, पुत्तेहिं वामि पबिद्यामि, विपुलधण-कणगरयण-मणि- मोत्तिय संख-सिलप्पवालरत्तरय- संत सारसावएन्जेणं अतीव अतीव अभि वड्ढामि, तं किं णं अहं पुरा पोराणाणं सुचिणा जाव कडा कम्माणं एगंतसो खयं उवेहमाणे विहरामि ? तंजावताव अहं हिरण्णेणं वड्ढामि जाव अतीव अतीव अभिवामि जावं च मे मित्तनाति-नियम-सय-संबंध परियणो आदाति परियाणाइ सक्कारेइ सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं विगएणं चेयं जजुवासइ, तावता में सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उद्वियग्मि सूरे सहस्सरस्सिग्मि दिनयरे तेयसा जलते सयमेव उदयं दारुमयं पडिम्गहनं करेता, विउल असण-पान-खाइम साइमं उवक्खडावेत्ता, मित्त-नाइ - नियग-सयणसंबंधि-परिवणं आमंतेत्ता, तं मित्त-नाइ- नियग-सयण-संबंधि-परियणं विउलेणं असण- पाण- खाइम - साइमेणं वत्थ-गंधमल्लालंकारेण 'य सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता, तस्सेव मित्त-नाइ-नियग सयण संबंधि परियणस्स पुरओ जेद्पुत्तं कुटुंबे ठावेत्ता, तं मित्त-नाइ - नियग-सयण संबंधि-परियणं जेपुतं च आपुच्छित्ता, सायमेव चडप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहगं गहाय मुंडे भवित्ता दाणामाए Jain Education International ४४ भाष्य २. बेभेल सन्निवेश अन्वेषणीय है। तत्र बेले सन्निवेशे पूरणो नाम गाहापतिः परिवसति आदयः दीप्तः याद बहुजनस्य अपरिभूतश्चापि आसीत् । + पूरणस्य दानमयी प्रव्रज्या-पदम् ततः तस्य पूरणस्य गृहपतेः अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापरात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि - अस्ति तावन् मम पुरा पुराणानां सुचीर्णानां सुपराक्रान्तानां शुभानां कल्याणानां कृतानां कर्मणां कल्याणफलवृत्तिविशेषः, येनाहं हिरण्येन बर्जे, सुवर्णेन करें, धनेन व धान्येन वर्चे, पुत्रे वर्द्धे, वर्द्धे वर्द्धे, पशुभिः वर्द्धे, विपुलधन-कनक-रत्नमणि-मौक्तिक- शंख-शिला- प्रवाल- रक्तरत्नसत्सारस्वापतेयेन अतीव अतीव अभिव तत् किम् अहं पुरा पुराणानां सुचीर्णानां यावत् कृतानां कर्मणां एकान्तशः क्षयम् उपेक्षमाणः विहरामि ? तद् यावत्तावद् अहं हिरण्येन वर्षे यावद् अतीव-अतीव अभिवर्धे, यावच्च मे मित्र-ज्ञाति-निजक- स्वजन-संबंधि-परिजनः आद्रियते परिजानाति सत्कारोति सम्मानयति कल्याणं मंगलं दैवतं विनयेन चैत्यं पर्युपास्ते, तावत् मे श्रेयः कल्पं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावद् उस्थिते सुरे सहस्ररश्मी दिनकरे तेजसा ज्वलति स्वयमेव चतुष्पुटकं दारुमयं प्रतिग्रहकं कृत्वा विपुलं अशन-पान खाद्य-स्वायम् उपस्कार्य, मित्र - ज्ञाति - निजक- स्वजन- संबंधि- परिजनम् आमन्त्र्य, तं मित्र ज्ञाति-निजक-स्वजन-संबंधि-परिजन विपुलेन अशन-पान-खाद्य-स्वाद्येन वस्त्र- गन्ध-माल्यालंकारेण च सत्कृत्य सम्मान्य, तस्यैव मित्र - ज्ञाति - निजक-स्वजन-संबंधि-परिजनस्य पुरतः ज्येष्ठपुत्रं च कुटुम्बे स्थापयित्वा तं मित्र - ज्ञाति-निजक-स्वजन-संबंधि-परिजनं ज्येष्ठपुत्रं च आपृच्छ्य, स्वयमेव चतुष्पुटकं दारुमयं प्रतिग्रहकं गृहीत्वा मुण्डो भूत्वा दानमय्या प्रव्रज्यया प्रव्रजितुम् । For Private & Personal Use Only भगवई १०१. उस बेभेल सन्निवेश में पूरण नामक गृहपति रहता था। वह समृद्ध, तेजस्वी यावत् अनेक लोगों द्वारा अपरिभूत था सूरण की दानामा प्रव्रज्या का पद १०२. किसी समय मध्यरात्रि में कुटुम्बजागरिका करते हुए उस पूरण गृहपति के यह इस प्रकार का आध्यात्मिक स्मृत्यात्मक अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ इस समय मेरे पूर्वकृत पुरातन सुआचरित सुपराक्रान्त, शुभ और कल्याणकारी कर्मों का कल्याणदायी फल मिल रहा है, जिससे मैं चांदी, सोना, धन, धान्य, पुत्र, पशु तथा विपुल वेगवरत्न, मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल, लालरत्न (पद्मरागमणि) और श्रेष्ठ सार-वैभवशाली द्रव्यों से अतीव अतीव वृद्धि कर रहा हूं, तो क्या मैं पूर्वकृत पुरातन सुआचरित, सुपराक्रान्त, शुभ और कल्याणकारी कर्म एकान्ततः क्षीण हो रहे हैं और मैं उन्हें देखता जा रहा हूं? -- इसलिए जब तक में चांदी से वृद्धि कर रहा हूं यावत् इन वैभवशाली द्रव्यों से अतीव अतीव वृद्धि कर रहा हूं और जब तक मेरे मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी और परिजन मेरा आदर करते हैं, मुझे स्वामी के रूप में स्वीकारते हैं, सत्कार-सम्मान देते हैं, कल्याणकारी, मंगलकारी, देवरूप और चित्ताहादक मानकर विनयपूर्वक पर्युपासना करते हैं तब तक मेरे लिए यह श्रेय है कि में कल उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर मैं स्वयं चतुष्पुट काष्ठमय पात्र का निर्माण कर, विपुल भोजन, पेय, स्वाय और खाद्य पदार्थ तैयार करवा कर मित्र, जाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी और परिजनों को आमन्त्रित कर उन्हें विपुल भोजन, पेय, खाद्य, और स्वाद्य पदार्थों से तथा बस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, माला और अलंकारों से सत्कृतसम्मानित कर उन्हीं मित्रों, ज्ञातियों, कुटुम्बीजनों, स्वजनों संबंधियों और परिजनों के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित कर, उन मित्रों, ज्ञातियों, कुटुम्बीजनों, स्वजनों, संबंधियों, परिजनों और ज्येष्ठ . www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy