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भगवई
श.३ : उ.२ : सू.६५-१०० हैं-अर्हत् की प्रतिमा, अर्हत-मुनि। भावितात्मा अनगार का अर्थ हैं-वह मुनि लगता है। आशातना के प्रसंग में 'अरहंतचेइयाणि वा' पाठ नहीं है। इन जिसने ज्ञान, दर्शन आदि भावनाओं से अपने आपको भावित किया है। आधारों पर अरहंत चेइयाणि यह पाठ आलोचनीय है। वृत्तिकार ने 'नन्नत्थ' पद की व्याख्या दो प्रकार से की है-ननु+अत्र
उवासगदसाओ (१/४५) में “अण्णउत्थिय परिग्गहियाणि वा अथवा न अन्यन्त्र । दूसरी व्याख्या के प्रसंग में वृत्ति में 'अरहंते वा निस्साए अरहंतचेइयाइं"- यहां आलाप-संलाप और अशन-पान के दान की बात उडे उप्पयंति' यह पाठ उल्लिखित है। इससे यह प्रतीत होता है कि वृत्तिकार कही गई है। इसका संबंध प्रतिमा से नहीं, किसी व्यक्ति से हो सकता है। इस के सामने केवल एक ही पाठ रहा । पूरा प्रकरण महावीर से जुड़ा हुआ है। अर्हत् आधार पर प्रस्तुत प्रकरण में भी अर्हत्-चैत्य का अर्थ अर्हत्-मुनि किया जा की प्रतिमा चमर की सुधर्मासभा में भी मानी जाती है, फिर वह महावीर की सकता है। जयाचार्य ने इसका अर्थ छद्मस्थ तीर्थंकर किया है। उन्होने इस शरण लेने क्यों गया? इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता। चमर विषय की विस्तृत समीक्षा की है।' महावीर की शरण लेकर ही गया था, इसलिए वृत्ति में उद्धृत पाठ अधिक संगत ६६. सव्वे विणं भंते! असुरकुमारा देवा उड्ढं सर्वे ऽपि भदन्त! असुरकुमाराः देवाः ऊर्ध्वम् ६६. भन्ते! क्या सभी असुरकुमार देव ऊर्ध्वलोक में उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो? उत्पतन्ति यावत् सौधर्मः कल्पः?
यावत् सौधर्म कल्प तक जाते हैं ? गोयमा! णो इणढे समढे। महिड्ढिया णं गौतम! नायमर्थः समर्थः। महर्द्धिकाः असुर- गौतम! यह बात संगत नहीं है। महर्द्धिक असुरकुमार असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सो- कुमाराः देवाः ऊर्ध्वम् उत्पतन्ति यावत् सौधर्मः देव ही ऊर्ध्वलोक में यावत् सौधर्म कल्प तक जाते हैं। हम्मो कप्पो ।
कल्पः ।
चमरस्स उड्ढं उप्पाय-पदं
चमरस्य ऊर्बोत्पाद-पदम्
चमर का ऊर्ध्व-उत्पाद-पद ६७. एस वियणं भंते! चमरे असुरिंदे असुरराया एषोऽपि च भदन्त! चमरः असुरेन्द्रः असुर- ६७. भन्ते! क्या यह असुरेन्द्र असुरराज चमर भी ऊर्ध्वउड्ढे उप्पइयपुब्वे जाव सोहम्मो कप्पो? राजः ऊर्ध्वम् उत्पतितपूर्वः यावत् सौधर्मः लोक में यावत् सौधर्म कल्प तक गया हुआ है?
कल्पः? हंता गोयमा! एस वि य णं चमरे असुरिंदे हन्त गौतम! एषोऽपि च चमरः असुरेन्द्रः हां, गौतम! यह असुरेन्द्र असुरराज चमर भी ऊर्ध्वअसुरराया उड्ढं उप्पइयपुव्वे जाव सोहम्मो असुरराजः ऊर्ध्वम् उत्पतितपूर्वः यावत् सौ- लोक में यावत् सौधर्म कल्प तक गया हुआ है। कप्पो।
धर्मः कल्पः।
६८. अहो णं भंते! चमरे असुरिंदे असुरराया अहो भदन्त! चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः महिड्ढीए महज्जुईए जाव महाणुभागे। चमर- महर्द्धिकः महाद्युतिकः यावन् महानुभागः। स्स णं भंते! सा दिव्या देविड्ढी दिव्वा देव- चमरस्य भदन्त! सा दिव्या देवर्द्धि: दिव्या ज्जुती दिव्वे देवाणुभागे कहिं गते? कहिं देवद्युतिः दिव्यः देवानुभागः कुत्र गतः? कुत्र अणुपविढे?
अनुप्रविष्टः? कूडागारसालादिट्ठतो भाणियव्वो ॥ कूटागारशालादृष्टान्तः भणितव्यः।
६८. अहो भंते! असुरेन्द्र असुरराज चमर महान् ऋद्धि वाला है, महान् द्युति वाला है यावत् महासामर्थ्य वाला है। भन्ते! चमर की वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति और दिव्य देवानुभाग कहां गया? कहां प्रविष्ट हो गया?
कूटागारशाला का दृष्टान्त वक्तव्य है।
चमरस्स पुन्वभवे पूरणगाहावइ-पदं चमरस्य पूर्वभवे पूरणगृहपति-पदम्। चमर का पूर्वभव में पूरण गृहपति का पद ६६. चमरेणं भंते! असुरिंदेणं असुररण्णा सा चमरेण भदन्त! असुरेन्द्रेण असुरराजेन सा ६६ भन्ते! असुरेन्द्र असुरराज चमर ने वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्या देविड्ढी दिव्वा देवजुती दिव्वे देवाणु- दिव्या देवर्द्धि: दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवानु- दिव्य देवधुति और दिव्य दुवानुभाग किस हेतु से भागे किण्णा लद्धे? पत्ते? अभिसमण्णागए? भागः कथं लब्धः? प्राप्तः? अभिसमन्वागतः? उपलब्ध किया? किस हेतु से प्राप्त किया? और किस
हेतु से अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) किया?
१००. एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं एवं खलु गौतम! तस्मिन् काले तस्मिन् समये १००. गौतम! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप
इहे व जंबूदीवे दीवे भारहे वासे इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारतवर्षे विन्ध्यगिरि- द्वीप के भारतवर्ष में विन्ध्यपर्वत की तलहटी में बेभेल' बिंझगिरिपायमूले बेभेले नाम सण्णिवेसे पादमूले बेभेलः नाम सन्निवेशः आसीद्- नामक सन्निवेश था। सन्निवेश का वर्णन। होत्था-वण्णओ ॥
वर्णकः। १. भ. वृ. ३/६५- 'नण्णत्थ 'त्ति 'ननु' निश्चितम् 'अत्र' इहलोके, अथवा 'अरहते वा
केवलज्ञान-सहित, ते अरिहंत पहिलो शरण। निस्साए उई उप्पयंति' 'नान्यत्र' तन्निश्रयादन्यत्र न, न तां विनेत्यर्थः ।
छद्मस्थ-जिन संगीत, चैत्य सामान्यज्ञानी तिको ॥ २. भ. ३/११५
४. (क) भ. जो. १,५६/३७-४२। ३. भ. जो. १,५६/३६
(ख) प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध, १० वां चमर अधिकार।
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