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भगवई
१२३. जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहए, समोहणित्ता जे भविए चउसट्ठीए असुरकु मारावाससयसहस्सेसु अण्णवरंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारत्ताए उवबज्जित्तर, जहा नेरड्या तहा भाषियन्वा जाव कुमारा ।
१२५. से णं भंते! तत्थगए चेव आहारेज्ज वा? परिणामेन वा? सरीरं वा बंधेज्जा ?
१२४. जीवे णं भंते! मारणंतियसमुग्धारणं समोहए, समोहणित्ता जे भविए असंखेज्जेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते! मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं केवइयं गच्छेज्जा? केवइयं पाठज्वा?
गोवमा ! लोयतं गच्छेज्जा, लोयंतं पाउने गौतम! लोकान्तं गच्छेत्, लोकान्तं प्राप्नुज्जा।। यात् ।
गोयमा अत्येगतिए तत्थगए चेव आहारेज्ज ! वा, परिणामेज्ज वा सरीरं वा बंधेज्जा अत्वेगतिए तओ पडिनियत्त, पडिनियत्तित्ता इहमागच्छ, दोच्चं पि मारणंतियसमुग्धाएणं समोहण, समोहणित्ता मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्विमे णं अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेतं वा संखेज्जइभागमे तं वा, बालगं वा, वालग्गपुहत्तं वा; एवं लिक्ख जूय-जय - अंगुल जाव जोवनकोडिं वा, जोयणकोडाकोडिं वा संखेज्जेसु वा असंखेज्जेसु वा जोयणसहस्से, लोगंते वा एगपएसियं सेविं मोत्तूण असंखेज्जे पुढविकाइया वाससयसहस्सेसु वाससयस हस्सेसु अण्णयरंसि पुढविकाइया वासंसि पुढविकाइयत्ताए उववज्जेता, तओ पच्छा आहारेज्ज वा परिणामेज्ज वा सरीरं वा बंधेज्जा ।
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जीव: भदन्त ! मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतः, समवहत्य यः भव्यः चतुष्षष्ट्याम् असुरकुमारावासशतसहस्रेषु अन्यतरस्मिन् असुरकुमारावासे असुरकुमारतया उपपत्तुम्, यथा नैरयिका: तथा भणितव्याः यावत् स्तनितकुमाराः ।
जीव भदन्त ! मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतः, समवहत्य यः भव्यः असंख्येयेषु पृथिवीकायिकावासशतसहस्रेषु अन्यतरस्मिन् पृथिवीकायिकावासे पृथिवीकायिकतया उपपत्तुम्, स भदन्त ! मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये कियद् गच्छेद् ? कियत् प्राप्नुयात् ?
स भदन्त ! तत्रगतश्चैव आहरेद् वा ? परिणमयेद् वा? शरीरं वा बध्नीयाद् ?
गौतम ! अस्त्वेककः तत्रगतश्चैव आहरेद् वा, परिणमयेद वा शरीरं वा बच्नीयादः अस्त्येककः ततः प्रतिनिवर्तते, ततः प्रतिनिवृत्य इह आगच्छति, द्वितीयमपि मारणान्तिकसमुद्रघातेन समवहन्ति, समवहत्य मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये अंगुलस्य असंख्येयभाग- मात्रं वा संख्येयभागमात्रं वा, बालाग्रं वा, बालाग्रपृथक्त्वं वा एवं लिक्षा दूका यवा मुलाबाबद योजनकोटिया, योजनकोटिकोटिं वा संख्येयेषु वा असंख्येयेषु वा योजनसह सेषु, लोकान्ते वा एक्प्रदेशिकां श्रेण मुक्त्वा असंख्येयेषु पृथ्वीकायिकावासशतसहस्रेषु अन्यतरस्मिन् पृथिवीकायिकावासे पृथिवीकायिकतया उपपद्य, ततः पश्चाद् आहरेद्वा परिणमयेद वा शरीरं वा वघ्नीवाद।
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श. ६ : उ. ६ : सू. १२३-१२५ १२३. भन्ते जीव मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर जो भव्य चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से किसी एक असुरकुमारावास में असुरकुमार के रूप में उपपन्न होता है, उसकी वक्तव्यतानैरयिक की भांति (सू. १२२) ज्ञातव्य है। असुरकुमार से स्तनिक कुमार तक यही वक्तव्यता ।
१२४. भन्ते जीव मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर जो भव्य असंख्य लाख पृथ्वीकायिक आवासों में से किसी एक पृथ्वीकायिक- आवास में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होता है, भन्ते वह जीव मेरू पर्वत के पूर्व में कितनी दूर जाता है? कितनी दूर प्राप्त करता है ?
गौतम ! वह लोकान्त तक जाता है, लोकान्त को प्राप्त करता है।
१२५. भन्ते ! वह वहां पृथ्वीकायिक आवास में जाते ही क्या पुद्गलों का आहरण करता है? उनका परिणमन करता है? उनसे शरीर का निर्माण करता है?
गीतम! कोई जीव वहां पृथ्वीकाविक आवास में जाते ही पुद्गलों का आहरण करता है, उनका परिणमन करता है, उनसे शरीर का निर्माण करता है । कोई जीव वहां से लौट आता है, लौट कर यहां अपने वर्तमान शरीर में आता है, आ कर फिर दूसरी बार मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर मेरुपर्वत के पूर्व में अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र, संख्यातवें भाग मात्र, बाला, बाला पृथक्त्व ( अनेक बाला), इसी प्रकार लीख, जूं, यव, अंगुल यावत् कोटि योजन कोटिकोटियोजन, संख्येय हजारयोजन और असंख्येय हजारयोजन में अथवा लोकान्त में एक प्रदेशात्मक श्रेणी को छोड़ कर पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्य लाख पृथ्वीकायिक आवासों में से किसी एक पृथ्वीकायिक आवास में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होता है, उसके पश्चात् पुद्गलों का आहरण करता है, उनका परिणमन करता है, उनसे शरीर का निर्माण करता है।
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