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________________ छट्ठो उद्देसो : छट्ठा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद नैरयिक आदि के आवास-पद नेरइयादीणं आवास-पदं नैरयिकादीनाम् आवास-पदम् १२०. कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? कति भदन्त ! पृथिव्य: प्रज्ञप्ता:? गोयमा! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा गौतम ! सप्त पृथिव्य: प्रज्ञप्ताः, तद् यथा -यणप्पभा जाव अहेसत्तमा। -त्नप्रभा यावत् अध:सप्तमी। रयणप्पभाईणं आवासा भाणियव्वा जाव रत्नप्रभादीनाम् आवासा: भणितव्या: यावद् अहेसत्तमाए। एवं जत्तिया आवासाते भाणि- अधःसप्तम्याः। एवं यावन्त: आवासा: ते यव्वा जाव भणितव्या: यावत् १२०. 'भन्ते! पृथ्वियां कितनी प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! पृथ्वियां सात प्रज्ञप्त हैं, जैसे–रत्नप्रभा यावत् अध:सप्तमी। रत्नप्रभा पृथ्वी यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी के आवास वक्तव्य हैं। इस प्रकार जितने आवास हैं, वे सब वक्तव्य हैं, यावत् १२१. कतिणं भंते ! अणुत्तरविमाणा पण्णता? गोयमा! पंच अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता, तं जहा—विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए सव्वट्ठसिद्धे॥ कतिभदन्त! अनुत्तरविमानानि प्रज्ञप्तानि? १२१. भन्ते ! अनुत्तरविमान कितने प्रज्ञप्त है? गौतम ! पंच अनुत्तरविमानानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! अनुत्तरविमान पांच प्रज्ञप्त हैं, जैसेतद् यथा-विजयः, वैजयन्त:, जयन्तः, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वाअपराजितः, सर्वार्थसिद्धः। र्थसिद्ध। मारणंतियसमुग्घाय-पदं मारणान्तिकसमुद्घात-पदम् मारणान्तिकसमुद्घात-पद १२२. जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं जीव: भदन्त ! मारणान्तिकसमुद्घातेन १२२. भन्ते ! जीव मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे समवहतः, समवहत्य य: भव्य: अस्यां होता है। समवहत हो कर जो भव्य इस रत्नप्रभा पृथ्वी रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावा- रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत् निरयावास- के तीस लाख नरकावासों में से किसी एक नरकावास ससयसहस्सेसु अण्णयरंसि निरयावासंसि शतसहस्रेषु अन्यतरस्मिन् निरयावासे नैरयि- में नैरयिक के रूप में उत्पन्न होने वाला है, भन्ते! वह नेरइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते ! तत्थ- कतया उपपत्तुम्, स भदन्त ! तत्रगतश्चैव जीव वहां नरकावास में जाते ही क्या पुद्गलों का गए चेव आहारेज्ज वा? परिणामेज्ज वा? आहरेद् वा? परिणमयेद् वा? शरीरं वा आहरण करता है? उनका परिणमन करता है? उनसे सरीरं वा बंधेज्जा? बध्नीयात्? शरीर का निर्माण करता है? गोयमा! अत्थेगतिएतत्थगए चेव आहारेज्ज गौतम ! अस्त्येककः तत्रगतश्चैव आहरेद् गौतम! कोई जीव वहां नरकावास में जाते ही पुद्गलों वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेज्जा; वा, परिणमयेद् वा, शरीरं वां बध्नीयाद्; का आहरण करता है, उनका परिणमन करता है और अत्थेगतिए तओ पडिनियत्तति, ततो पडि- अस्त्येकक: तत: प्रतिनिवर्तते, तत: प्रतिनि- उनसे शरीर का निर्माण करता है। कोई जीव वहां से नियत्तित्ता इहमागच्छइ, आगच्छित्ता दोच्चं वृत्य इह आगच्छति, आगत्य द्वितीयमपि लौट आता है। लौट कर यहां अपने वर्तमान शरीर पि मारणंतियसमुग्धाएणं समोहण्णइ, समो- मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहन्ति, सम- में आ जाता है। आ कर फिर दूसरी बार मारणान्तिक हणित्ता इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए। वहत्य अस्या रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत् समुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर इस निरयावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि निर- निरयावासशतसहस्रेषु अन्यतरस्मिन् निरया- रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से किसी यावासंसि नेरइयत्ताए उववज्जित्तए, तओ वासे नैरयिकतया उपपत्तुम् , तत: पश्चाद् एक नरकावास में नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है। पच्छा आहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं आहरेवा, परिणमयेद्वा, शरीरं वा बध्नी- उसके पश्चात् पुद्गलों का आहरण करता है, उनका वा बंधेज्जा। एवं जाव अहेसत्तमा पुढवी॥ याद्। एवं यावद् अध:सप्तमी पृथिवी।। परिणमन करता है और उनसे शरीर का निर्माण करता है। इस प्रकार अध:सप्तमी पृथ्वी तक ज्ञातव्य है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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