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भगवई
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श.५: उ.६: सू.१३९-१४७
शब्द-विमर्श
आधाकर्म-केवल साधु के लिए किया हुआ। द्रष्टव्य भ. १/४३६, ४३७ का भाष्य । क्रीतकृत-मुनि के लिए खरीदा हुआ। स्थापित-मुनि के लिए स्थापित किया हुआ। रचित-मुनि के लिए चूरमे से चूरमे का लड्डु बना देना।
कान्तारभक्त अटवी में मुनि के निर्वाह के लिए बनाया हुआ भोजन । प्राचीनकाल में मुनियों का गमनागमन सार्थवाहों के साथ-साथ होता था। कभी वे अटवी में साधु पर दया ला कर उनके लिए भोजन बना कर दे देते थे। इसे कान्तारभक्त कहा जाता है।
दुर्भिक्षभक्त-भयंकर दुष्काल होने पर राजा तथा अन्य धनाढ्य व्यक्ति
श्रमणों के लिए भक्तपान तैयार कर देते थे, वह दुर्भिक्षभक्त कहलाता था।
बादीलकाभक्त-आकाश में बादल छाए हुए हैं। वर्षा गिर रही है। ऐसे समय में भिक्षु भिक्षा के लिए नहीं जा सकते। यह सोच कर गृहस्थ उनके लिए विशेषत: दान का निरूपण करता है—निर्माण करता है। यह बालिकाभक्त कहलाता है।
ग्लानभक्त-इसके तीन अर्थ हैं१. ग्लान की नीरोगता के लिए दिया जाने वाला भोजन। २. भिक्षुक को देने के लिए बनाया हुआ भोजन।' ३. आरोग्यशाला (अस्पताल) में दिया जाने वाला भोजन।' शय्यातरपिण्ड-स्थानदाता के घर से भिक्षा लेना। राजपिंड-मूर्धाभिषिक्त राजा के घर से भिक्षा लेना।
आयरिय-उवज्झायस्स सिद्धि-पदं
आचार्योपाध्याययोः सिद्धि-पदम् आचार्य-उपाध्याय की सिद्धि का पद १४७. आयरिय-उवज्झाए णं भंते ! सविसयंसि आचार्योपाध्याय: भदन्त ! स्वविषये गणं १४७. भन्ते ! आचार्य और उपाध्याय अपने विषय गणं अगिलाए संगिण्हमाणे,अगिलाए उव- आलान्या संगृह्णन्, अग्लान्या उपगृह्णन् (अर्थदान और सूत्रदान) में अग्लान भाव से गण का गिण्हमाणे कइहिं भवग्गहणेहिं सिज्झति जाव कतिभि: भवग्रहणैः सिद्धयति यावत् सर्व- संग्रह करते हुए और अग्लान भाव से गण का उपग्रह सव्वदुक्खाणं अंतं करेति? दु:खानाम् अन्तं करोति?
करते हुए कितने भवग्रहणों से सिद्ध होते हैं यावत्
सब दु:खों का अन्त करते हैं ? गोयमा ! अत्थेगतिए तेणेव भवग्गहणेणं गौतम ! अस्त्येककः तेनैव भवग्रहणेन गौतम ! कुछ (आचार्य-उपाध्याय) उसी भव में सिद्ध सिज्झति, अत्थेगतिए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिद्धयति, अस्त्येककः द्वितीयेन भवग्रहणेन हो जाते हैं, कुछ दूसरे भव में सिद्ध हो जाते हैं, वे सिज्झति, तच्चं पुण भवग्गहणं नाइक्कमति। सिद्धयति, तृतीयं पुन: भवग्रहणं नाति- तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते-तीसरे भव में क्रामति
वे अवश्य सिद्ध होते हैं।
भाष्य
१. सूत्र १४७
गण का संग्रह और उपग्रह करने वाला आचार्य-उपाध्याय बहुत निर्जरा करता है, इसलिए वह शीघ्र मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। मोक्ष-प्राप्ति की तीन काल-मर्यादाएं बतलाई गई हैं
१. उसी जन्म में मोक्ष-प्राप्ति
२. दूसरे जन्म में मोक्ष-प्राप्ति। इसका तात्पर्य है तीसरे जन्म में मोक्ष-प्राप्तिा यहां अन्तरालवर्ती देव जन्म गिना नहीं गया।
३. तीसरे जन्म में मोक्ष-प्राप्ति। इसका तात्पर्य है पांचवे जन्म में मोक्ष-प्राप्ति।
शब्द-विमर्श
आचार्य-उपाध्याय-आचार्य-सहित उपाध्याय। यह एक ही व्यक्ति प्रतीत होता है। वह आचार्य और उपाध्याय दोनों का कार्य करता है। व्यवहारसूत्र में तीन वर्ष के दीक्षा-पर्याय को उपाध्याय-पद की अर्हता माना गया है। पांच वर्ष के दीक्षा पर्याय को आचार्य-पद की अर्हता माना गया है।
स्वविषय-आचार्य का विषय है अर्थ पढ़ाना। उपाध्याय का विषय है सूत्र पढ़ाना।
अग्लानभाव-खेद-रहित अवस्था।
1
-ना
१. व्य,भा.न.उ. ३, प. ३५-आधाकर्मिक यन्मूलत एव साधूनां कृते कृतम्।। २. वही, वृ. प. ३५-स्थापितं यत्संयतार्थं स्वस्थाने परस्थाने। ३. भ.७.५/१३९-लानस्य निरोगतार्थं भिक्षुकदानाय यत्कृतं भक्तम् तद् ग्लानकम्। ४. ठाणं ९/६२ का टिप्पण। ५. भ.व. ५/१४७-द्वितीयः तृतीयश्च भवो मनुष्यभवो देवभवान्तरितो दृश्यः, चारित्र- बतोऽनन्तरो देवभव एव भवति न च तत्र सिद्धिरस्तीति।
६. (क) भ.वृ. ५/१४७-आचार्येण सहोपाध्याय आचार्योपाध्यायः। (ख) भ.जो.८८/४१
जिन कहै केइ तिणहिज भव सीझै,
जाव सर्व दुःख अंत करीजै।। ७. वव. ३/३ ८. वही, ३/५
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