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श.५ : उ.६: सू.१४८,१४९
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भगवई
अब्भक्खाणिस्स कम्मबंध-पदं
आभ्याख्यानिन: कर्मबन्ध-पदम् अभ्याख्यानी के कर्मबन्ध-पद १४८. जे णं भंते ! परं अलिएणं असब्भूएण यो भदन्त ! परम् अलीकेन असद्भूतेन अ- १४८. भन्ते ! जो पुरुष मिथ्या असद्भूत अभ्याख्यान
अब्भक्खाणेणं अब्भक्खाति, तस्स ण भ्याख्यानेन अभ्याख्याति, तस्य कथं प्रका- (दोषारोपण) के द्वारा दूसरे को आरोपित करता है, कहप्पगारा कम्मा कज्जति? राणि कर्माणि क्रियन्ते? ।
उसके किस प्रकार के कर्मों का बन्ध होता है? गोयमा ! जे णं परं अलिएणं असंतएणं गौतम ! यः परम् अलीकेन असता अभ्या- गौतम! जो पुरुष मिथ्या, असदुद्भूत अभ्याख्यान के अब्भक्खाणेणं अब्भक्खाति, तस्स णं ख्यानेन अभ्याख्याति, तस्य तथाप्रकाराणि द्वारा दूसरे को आरोपित करता है, उसके उसी प्रकार तहप्पगारा चेव कम्मा कज्जंति। जत्थेवणं चैव कर्माणि क्रियन्ते । यत्रैव अभिसमा- के कर्मों का बन्ध होता है। वह जहां उत्पन्न होता है, अभिसमागच्छति तत्थेव णं पडिसंवेदेति, गच्छति तत्रैव प्रतिसंवेदयति, ततः स वहीं उन कर्मों का प्रतिसंवेदन करता है, पश्चाद् उनका तओ से पच्छा वेदेति। पश्चाद् वेदयति।
वेदन-निर्जरण करता है।
भाष्य
१. सूत्र १४८
प्रस्तुत सूत्र में कर्मशास्त्र का एक नियम प्रतिपादित है। वह नियम है-आचरण के अनुरूप कर्म का बन्ध और उसके फल का नियमन । मिथ्या आरोप लगाने वाला भविष्य में मिथ्या आरोप से आरोपित होता है। इसमें इस अनुश्रुति की प्रतिध्वनि है—“जैसा करोगे, वैसा भरोगे।" कर्म की शुद्धि के दो निमित्त हैं। एक प्रायश्चित्त और दूसरा उसके विपाक को भोग लेना। यहाँ केवल दूसरे प्रकार का निर्देश है।
शब्द-विमर्श
अलीक-असत्य।
असद्भूत—जो नहीं है, उसका उद्भावन करना, जो चोर नहीं है उसको चोर कहना।।
अभ्याख्यान-आरोप लगाना, दोष प्रगट करना। अभ्याख्याति-दोषारोपण करना। अभिसमागच्छति-उत्पन्न होता है। प्रतिसंवेदयति-प्रतिसंवेदन करता है, भोगता है।
१४९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिा।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
१४९. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है।
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