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________________ श. ५: उ. ६ : सू. १३९-१४६ १४५. आहाकम्मं णं ‘अणवज्जे' त्ति बहुजणमज्झे पण्णवइत्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालं करेड़ —त्थि तस्स आराहणा । से णं तस्स ठाणस्स आलोय पहिक्कते कालं करेड़अत्थि तस्स आराहणा ।। १४६. एयं पि तह चैव जाव रायपिंडं || भगनई ५ / १३९, १४० आहाकम्म कीयगड ठविय रइय कंतारभत्त दुब्धिभत बद्दलिया भत्त गिलाणभत्त सेज्जारपिंड रायपिंड १. सूत्र ९३९-१४६ प्रस्तुत आलापक में आधाकर्म के विषय में चार सूत्र हैं१. आधाकर्म अनवद्य है— इस प्रकार की मानसिक अवधारणा करना । २. आधाकर्म को अनवद्य मानकर स्वयं उसका परिभोग करना। ३. आधाकर्म को अनवद्य मानकर उसे परस्पर लेना-देना । ४. आधाकर्म अनवद्य हैजनता के बीच इस प्रकार का प्रज्ञापन करना। इन चार दोषों का आचरण कर उसकी आलोचना न करना विराधना है। ये आचार-विषयक सूत्र हैं। आहार मुनि के आचार का एक अंग १. भ. ९/१७७, नाया. -१/१/११३. Jain Education International ठाणं ९/६२ आहाकम्मिय उद्देसिय मीसजाय अज्झोयरय पूतिय आधाकर्मम् 'अनवद्यम्' इति बहुजनमध्ये प्रज्ञापयिता भवति । स तस्मात् स्थानात् अनालोचितप्रतिक्रान्तः कालं करोतिनास्ति तस्य आराधना । स तस्मात् स्थानाद् आलोचित प्रतिक्रान्तः कालं करोतिअस्ति तस्य आराधना । एतद् अपि तथा चैव यावद् राजपिण्डमा फीत १८४ पामिन्स अच्छेज्ज अणिसट्ठ अभिव कंतारभत्त टुम्बिक्यात गिलाणभत्त बदलियाभत्त पाहुणभत्त भाष्य है। भगवान् महावीर ने मुनि के लिए निर्दोष आहार लेने का विधान किया। सदोष आहार को निर्दोष मानना यह आचार विषयक मिथ्या दृष्टिकोण है। सदोष आहार का परिभोग करना तथा उसका परस्पर लेन-देन करना आचार की मर्यादा का अतिक्रमण है। सदोष का निर्दोष के रूप में प्रज्ञापन करना आचार-विषयक मिथ्या धारणा का प्रसारण है। आगम साहित्य में आहार विषयक दोषों के अनेक वर्गीकरण मिलते हैं। देखें तालिका आहाकम्मिय उद्दे मीसजाय कीयगड पामिच्च असोज अगि अभिहड भगवई १४५. आधाकर्म अनवद्य है, इस प्रकार जो बहुजनों के बीच प्रज्ञापन करता है, वह उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना काल धर्म को प्राप्त होता है—उसके आराधना नहीं होती। जो उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण कर कालधर्म को प्राप्त होता है—उसके आराधना होती है। - १४६. क्रीतकृत का बहुजनों के बीच प्रज्ञापन यावत् राजपिण्ड का बहुजनों के बीच प्रज्ञापन पूर्व सूत्र (१४५ ) की भांति वक्तव्य है। For Private & Personal Use Only आयारचूला १/२९ दसवे आलियं ३/२, ३, ५, ५/१/५५ उदेसिय कीड नियाग अभिहड रायविंड १ भगवती के नौवें शतक तथा नायाधम्मकहाओ में भी आधाकर्मिक आदि दोषों का उल्लेख मिलता है।' - किमचिम्भ सेज्जापरपिंड पूइकम्म अज्झोयर पामिच्च मीसजाय www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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