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भगवई
१८३
श.५: उ.६:सू.१३८-१४४
शब्द-विमर्श
उज्ज्वल--अधिक प्रज्वलित, जिसमें सुख का लेश भी न हो। विपुल-शरीर -व्यापी
कर्कश-अनिष्ट दुर्गम—जिसका पार पाना कठिन हो। दुःसह-जिसे सहन करना कठिन हो।
आहाकम्मादिआहारे आराहणादि-पदं आधाकर्माद्याहारे-आराधनादि-पदम् आधाकर्म आदि आहार के सम्बन्ध में आरा
धनादि-पद १३९. आहाकम 'अणवज्जे' त्ति मण आधाकर्म 'अनवद्यम्' इति मन: प्रधारयिता १३९. आधाकर्म अनवद्य है, इस प्रकार जो मानसिक पहारेत्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स भवति, स तस्मात् स्थानाद् अनालोचित- प्रधारणा करता है, वह उस स्थान की आलोचना अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ----नत्थि प्रतिक्रान्त: कालं करोति-नास्ति तस्य और प्रतिक्रमण किए बिना काल-धर्म को प्राप्त होता तस्स आराहणा। से णं तस्स ठाणस्स आराधना। स तस्मात् स्थाना आलोचित- है-उसके आराधना नहीं होती। वह उस स्थान की आलोइयपडिक्कते कालं करेइ-अत्थि प्रतिक्रान्त: कालं करोति-अम्ति तस्य आलोचना और प्रतिक्रमण कर कालधर्म को प्राप्त तस्स आराहणा।
आराधना।
होता है----उसके आराधना होती है!
१४०. एएण गमेण नेयव्वं-कीयगडं, ठवियं, ___ एतेन गमेन नेतव्यं—क्रीतकृत, स्थापितं, १४०. इसी गमक के अनुसार क्रीतकृत, स्थापित, रइयं, कंतारभत्तं दुभिक्खभत्तं वद्दलिया- रचितं, कान्तारभक्तं, दुर्भिक्षभक्त, बार्दलि- रचित, कान्तार-भक्त, दुर्भिक्ष-भक्त, बार्दलिकाभत्त, गिलाणभत्तं, सेज्जायरपिंडं, रायपिंड। काभक्तं, ग्लानभक्तं, शय्यातरपिण्ड, राज- भक्त, ग्लान-भक्त, शय्यातरपिण्ड और राजपिण्ड पिण्डम्।
ज्ञातव्य है।
१४१. आहाकम्म 'अणवज्जे' ति सयमेव आधाकर्म अनवद्यमिति स्वयमेव परिभोक्ता १४१. आधाकर्म अनवद्य है, ऐसा सोचकर जो स्वयं परिभुंजित्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स भवति, स तस्मात् स्थानाद् अनालोचित- उसका परिभोग करता है, वह उस स्थान की आलो. अणालोइयपडिक्कंते कालं करेइ-त्थि प्रतिक्रान्त: कालं करोति-नास्ति तस्य चना और प्रतिक्रमण किए बिना काल-धर्म को प्राप्त तस्स आराहणा। से णं तस्स ठाणस्स आराधना। स तस्मात् स्थानाद् आलोचित- होता है--उसके आराधना नहीं होती। वह उस स्थान आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ-अत्थि प्रतिक्रान्त: काल करोति-अस्ति तस्य की आलोचना और प्रतिक्रमण कर काल-धर्म को तस्स आराहणा॥
आराधना।
प्राप्त होता है--उसके आराधना होती है!
१४२. एवं पि तह चेव जाव रायपिड।।
एतदपि तथा चैव यावद् राजपिण्डम्।
१४२. क्रीतकृत का परिभोग यावत् राजपिण्ड का परिभोग पूर्व सूत्र (१४०) की भांति वक्तव्य है।
१४३. आहाकम्म अणवज्जे' त्ति अण्णमण्ण- आधाकर्म 'अनवद्यम्' इति अन्योन्यस्मै १४३. आधाकर्म अनवद्य है, ऐसा सोचकर जो परस्पर स्स अणुप्पदावइत्ता भवइ, सेणं तस्स ठाणस्स अनुप्रदापयिता भवति, स तस्मात् स्थानाद ____अनुप्रदान करता है, वह उस स्थान की आलोचना अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ-नत्थि अनालोचितप्रतिक्रान्तः कालं करोति- और प्रतिक्रमण किए बिना काल-धर्म को प्राप्त होता तस्स आराहणा। से णं तस्स ठाणस्स नास्ति तस्य आराधना । स तस्मात स्थानाद् है.--- उसके आराधना नहीं होती। जो उस स्थान की आलोइय-पडिक्कंते कालं करेइ--अस्थि आलोचित-प्रतिक्रान्त: कालं करोति-... आलोचना और प्रतिक्रमण कर काल-धर्म को प्राप्त तस्स आराहणा॥
अस्ति तस्य आराधना।
होता है उसके आराधना होती है।
१४४, एवं पि तह चेव जाव रायपिंडं।
एतद् अपि तथा चैव यावद् राजपिण्डम्।
१४४. क्रीतकृत का परस्पर अनुप्रदान यावत् राजपिण्ड का परस्पर अनुप्रदान पूर्वसूत्र (१४३) की भांति वक्तव्य है।
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