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श. ५:३.६ : सू.१३६-१३८
अरगाउता सिवा, एवामेव जाव चत्तारि पंच जोयणसयाई बहुसमाइणे मणुयलोए मणुस्सेहिं
१३७. से कहमेयं भंते ! एवं? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमातिक्खति जाव बहुसमाइण्णे मणुयलोए मणुस्सेहिं । जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परुवेगि― से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थे हत्थे गेहेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव जाव चत्तारि पंच जोयसाई बहुसमाइणे निरयलोए नेरइएहिं ॥
नेरइयविवणापदं
१३८. नेरइया णं भंते! किं एगत्तं पभू विउब्वितए? पुहत्तं पभू विउव्वित्तए ?
१. सूत्र १३६-१३७
प्रस्तुत आलापक में विभंग ज्ञान के विपर्यय का निदर्शन है। विभंगज्ञानी नरक के स्थान पर मनुष्य लोक और नैरयिक के स्थान पर
गोयमा ! एगत्तं पि पहू विउव्वित्तए, पुहत्तंपि पहू विउव्वित्तए । जहा जीवाभिगमे आलाant तहा नेयव्वो जाव विउव्वित्ता अण्णमण्णस्स कार्य अभिहणमाणा- अभिहणमाणा वेयणं उदीरेति उज्जलं विजलं गाढं कक्कसं कडु फस्सं निठुरं चंडं तिब्वं दुक्खं दुग्गं दुरहिया ||
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अरकायुक्ता स्याद् एवमेव यावच् चत्वारि पञ्च योजनशतानि बहुसमाकीर्णः मनुजलोकः मनुष्यैः ।
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तत् कथमेतद् एवम्?
गौतम! यत्ते अन्ययूथिकाः एवमाख्याति यावत् बहुसमाकीर्णः मनुजलोकः मनुष्यैः । ये एते एवमाहुः मिथ्या ते एवमाहुः। अहं पुनः गौतम! एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामितद् यथानाम सुनतिं युवा हस्तेन हस्त गृह्णीयात्, चक्रस्य वा नाभि: अरकायुक्ता स्यात्, एवमेव यावच् चत्वारि पञ्च योजनशतानि बहुसमाकीर्णः निरयलोकः नैरयिकैः ।
भाष्य
नैरयिकविकरण-पदम्
नैरविका भदन्त किम् एकत्वं प्रभवः विकर्तुम् ? पृथक्त्वं प्रभवः विकर्तुम् ?
गौतम ! एकत्वमपि प्रभवः विकर्तुम्, पृथक्त्वमपि प्रभवः विकर्तुमा यथा जीवाभिगमे आलापकः तथा नेतव्य: यावद् विकृत्य अन्योन्यस्व कार्य अभिघ्नन्त:- अभिघ्नन्तः वेदनाम् उदीरयन्ति उन्न्वतां विपुलां प्रगाढां कर्कशाम् कटुकां परुषां निष्ठुरां चण्डां तीव्रां दुःखां दुर्गां दुरध्यासाम्।
भाष्य
१. सूत्र १३८
प्रस्तुत सूत्र में नैरयिक जीवों की विक्रिया का वर्णन है। नैरयिक जीवों का शरीर वैक्रिय होता है। वे अपनी वैक्रिय शक्ति के द्वारा एक या
१. (क) जीवा. वृ. प. १२० संबद्धानि स्वात्मन: शरीरसंलग्नानि 'नासंबद्धानि' न स्वशरीरात् पृथग्भूतानि स्वशरीरात पृथग्भूतकरणे शक्त्यभावात् ।
(ख) द्रव्य भ. २/७४ का भाष्या
मनुष्य को जान लेता है, यह उसका विपरीत ज्ञान है। द्रष्टव्य, भ. ३/२२२-२३९।
भगवई
नाभि आरों से युक्त होती है, इसी प्रकार यावत् चार सौ पांच सौ योजन वाला मनुष्य-लोक मनुष्यों से अत्यन्त आकीर्ण है।
१३७. भन्ते! यह ऐसे कैसे है?
गौतम ! वे अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते हैं। यावत् मनुष्य लोक मनुष्यों से अत्यन्त आकीर्ण है। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। गौतम मैं ऐसा आख्यान करता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँजैसे कोई युवा युवती का हाथ अपने हाथ में पकड़ता है, जैसे चक्र की नाभि आरों से युक्त होती है, इसी प्रकार यावत् चार सौ पांच सौ योजन वाला नरकलोक नैरयिकों से अत्यन्त आकीर्ण है।
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नैरयिकविक्रिया-पद
१३८. ' भन्ते ! नैरयिक एक (शस्त्र) की विक्रिया करने में समर्थ है अथवा अनेक (शस्त्रों) की विक्रिया करने में समर्थ हैं?
गौतम! एक (शस्त्र) की भी विक्रिया करने में समर्थ हैं, अनेक ( शस्त्रों) की भी विक्रिया करने में समर्थ है। जीवाजीवाभिगम में जैसा आलापक है, वैसा ही ज्ञातव्य है यावत् वे शस्त्रों की विक्रिया कर परस्पर एक-दूसरे के शरीर का अभिघात करते हुए उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ, कर्कश, कटुक, परुष, निष्ठुर, प्रचण्ड, तीव्र दुख, दुर्गम और दुःसह वेदना की उदीरणा करते हैं।
अनेक शस्त्रों का निर्माण कर सकते हैं। उनमें अपने शरीर से भिन्न रूपों का निर्माण करने की शक्ति नहीं होती।
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