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भगवई
में अविरति नहीं है, इसलिए उनका शरीर यदि प्राणातिपात का निमित्त बने, तो भी उनके कर्म-बन्ध नहीं होता। जिन जीवों के शरीर से पात्र आदि का निर्माण हुआ है, उनमें पुण्य का हेतुभूत विवेक नहीं है, इसलिए उनके पुण्य का बन्ध नहीं होता । वृत्तिकार ने अन्त में इस विषय को श्रद्धागम्य बतलाया है।"
वृत्तिकार की समीक्षा में कुछ
आलोचनीय है। अविरति का परिणाम बाण फेंकने वाले पुरुष और जिनके शरीर से धनुष्य आदि का निर्माण हुआ है, उन जीवों में समान हो सकता है। किन्तु बन्ध का हेतु केवल अविरति का परिणाम ही नहीं है, शरीर और मन का दुष्प्रयोग भी है। कायिकी क्रिया के दो प्रकार निर्दिष्ट हैं— अनुपरतकाय - क्रिया और दुष्प्रयुक्त काय-क्रिया। अनुपतकाय - क्रिया का सम्बन्ध अविरति से है। बाण फेंकने वाले पुरुष के
का योग अशुभ होता है। इसलिए उसके अनुपरतकायिकी और दुष्प्रयुक्त काकी दोनों क्रियाएं होती हैं। किन्तु बाण निर्वर्त्तक शरीर वाले जीवों के केवल अनुपरतकाय क्रिया होती है, दुष्प्रयुक्तकाय क्रिया नहीं होती। शेष क्रियाएं भी उन जीवों के इसलिए होती हैं कि उनके परिताप आदि करने का प्रत्याख्यान नहीं है। बाण फेंकने वाले पुरुष का मनोयोग और काययोग दोनों परिताप आदि करने में प्रवृत्त हैं, इसलिए उसके अविरति और अशुभ योग ये दोनों क्रिया के हेतु बनते हैं।
अविरति का परिणाम केवल उन जीवों में ही नहीं होता जिनके शरीर से धनुष्य आदि का निर्माण हुआ है। यह उन जीवों में भी है जिनके शरीर से धनुष्य आदि का निर्माण नहीं हुआ है। फिर उनके लिए ही क्रिया का उल्लेख क्यों?
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इस प्रश्न के उत्तर में दो संभावनाएं की जा सकती हैं। प्रथम संभावना यह है—एक सामान्य सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है— जिनके प्रत्याख्यान नहीं होता, अविरति का परिणाम होता है और अविरति परिणाम के कारण वे क्रिया से स्पृष्ट होते हैं। दूसरी संभावना-जिन जीवों के शरीर से धनुष्य आदि का निर्माण हुआ है, उन जीवों का अपने-अपने शरीर के प्रति
अण्णउत्थिय-पदं
१३६. अण्णउत्थिया णं भंते! एवमातिक्खति जाव परूवेंति—से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी
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श. ५:३. ६: सू. १३४-१३६
ममत्व का अनुबन्ध होता है। इस अपेक्षा को ध्यान में रखकर उनके लिए क्रिया से स्पृष्ट होने का निर्देश किया गया है। इन दोनों संभावनाओं में क्रिया के स्पर्श का मुख्य कारण अविरति परिणाम ही माना जा सकता है।
बाण अपने भारीपन के कारण नीचे जाता है। उससे प्राणियों का परिताप और वध होता है। इस घटना में बाण फेंकने वाले को गौण मानकर उसके चार क्रियाओं का स्पर्श बतलाया गया है। धनुष्य के निर्वर्तक शरीर वाले जीवों के पांच क्रियाओं के स्पर्श का प्रतिपादन किया गया है।
शब्द-विमर्श
१. भ. बृ. ५/१३४ - ननु पुरुषस्य पञ्च क्रिया भवन्तु, कायादिव्यापाराणां तस्य दृश्यमानत्वात्, धनुरादिनिर्वर्त्तकशरीराणां तु जीवानां कथं पञ्च क्रिया:? कायमात्रस्यापि तदीयस्य तदानीमचेतनत्वात् अचेतनकायमात्रादपि बन्धाभ्युपगमे सिद्धानामपि तत्प्रसन्नः तदीयशरीराणामपि प्राणातिपातहेतुत्वेन लोके विपरिवर्त्तमानत्वात् किञ्च यथा धनुरादीनि कायिक्यादिक्रियाहेतुत्वेन पापकर्मबन्धकारणानि भवन्ति तज्जीवानामेवं पात्रदण्डकादीनि जीवरक्षाहेतुत्वेन पुण्यकर्मनिबन्धनानि स्युः न्यायस्य समानत्वाद् इति, अत्रोच्यते, अविरतिपरिणामाद् बन्धः अविरतिपरिणामश्च यथा पुरुषस्यास्ति एवं धनुरादिनिर्वर्त्तकशरीरजीवानामपीति सिद्धानां तु नास्त्यसाविति न बन्धः, पात्रादि
परामुसइ — स्पर्श करता है, हाथ में लेता है।
ठाणं ठाइ – वैशाख नामक युद्ध की मुद्रा में खड़ा होता है। आयत प्रक्षेप के लिए फैलाया हुआ । -कान तक खींचा हुआ।
कण्णायत बेहास विहायस, आकाश । पर फेंकना, बाँधना।
अन्ययूथिक पदम् अन्ययधिकाः भदन्त ! एवमाख्यान्ति यावत् प्ररूपयन्ति तद् यथानाम युवतिं युवा हस्तेन हस्तं गृह्णीयात्, चक्रस्य वा नाभिः
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उच्चिहड़
बचेति गोलाकार करता है, दिशा परिवर्तन करता है। लेसेति — चोट पहुँचाता है।
संघाएक-एक दूसरे के अवयवों को संहत करता है। संघट्टेति संचालित करता है।
धणुपट्ट (धनुः पृष्ठ) धनुष का पृष्ठ भागा
जीवा - प्रत्यञ्चा - धनुष की डोरी ।
हारू (स्नायु ) - पशु के स्नायु से बनने वाली धनुष की छोरी।
सर—बाण |
पत्तण (पत्रण ) - बाण का पंख या पक्ष फल- बाण का फलक ।
पच्चोवयमाण नीचे गिरते हुए । आलम्बन ।
उवग्गह (उपग्रह)
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अन्ययूथिक पद
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१३६. 'भन्ते ! अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं—जैसे कोई युवा युवती का हाथ अपने हाथ में पकड़ता है, जैसे चक्र की
जीवानां च न पुण्यबन्धहेतुत्वं तद्धेतोर्विवेकादेस्तेष्वभावादिति, किञ्च सर्वज्ञवचनप्रमाण्याद्यथोक्तं तत्तथा श्रद्धेयमेवेत्ति ।
२. भ. ३/१३५
३. भ. वृ. ५/ १३५ - इह धनुष्मदादीनां यद्यपि सर्वक्रियासु कथञ्चिन्निमित्तभावोऽस्ति तथाऽपि विवक्षितबन्धं प्रत्यमुख्यप्रवृत्तिकतया विवक्षितवधक्रियायास्तैः कृतत्वेनाविवक्षणाच्छेषक्रियाणां च निमित्तभावमात्रेणापि तत्कृतत्वेन विवक्षणाच्चतस्रस्ता उक्ता: । बाणादिजीवशरीराणां तु साक्षाद् वधक्रियायां प्रवृत्तत्वात्पञ्चेति ।
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