SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श.५: उ.६:सू.१३४,१३५ १८० भगवई गोयमा! जावं चणं से पुरिसे धणुं परामुसइ, गौतम ! यावच् च स पुरुष: धनु: परामृशति उसुं परामुसइ, ठाणं ठाइ, आयतकण्णायतं इषु परामृशति, स्थाने तिष्ठति, आयत- उसुं करेंति, उद्धं वेहासं उसु उब्विहइ, तावं कर्णाऽऽयत्तम् इधुं करोति, ऊर्ध्व विहायति च णं से पुरिसे काइयाए अहिगरणियाए, इषुम् उत्क्षिपति, तावच् च स पुरुष: कायि- पाओसियाए, पारियावणियाए, पाणाइवाय- क्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारिकिरियाए---पंचहि किरियाहिं पुढे। जेसि पि तापनिक्या, प्राणातिपातक्रिययापञ्चभिः य णं जीवाणं सरीरेहिं धणू निव्वत्तिए ते वि क्रियाभिः स्पृष्टः। येषामपि च जीवानां यण जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं शरीरैः धनुः निर्वर्तितं तेऽपि च जीवा: पुट्ठा। एवं धणुपट्टे पंचहिं कि रियाहिं, जीवा कायिक्या यावत् पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टाः। पंचहि, हारू पंचहिं, उसू पंचहिं—सरे, एवं धनुःपृष्ठं पञ्चभिः क्रियाभिः, जीवा: पत्तणे, फले, हारू पंचहिं। पञ्चभिः, स्नायु: पञ्चभिः, इषुः पञ्चभिः —शरः, पत्रणं, फलं, स्नायु: पञ्चभिः। गौतम ! जिस समय वह पुरुष धनुष हाथ में लेता है, लेकर बाण को धनुष पर चढ़ाता है, चढ़ाकर स्थान (वैशाख नामक युद्ध की मुद्रा) में खड़ा होता है, खड़ा होकर बाण को कान की लम्बाई तक खींचता है और ऊपर आकाश की ओर उसे फेंकता है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातक्रिया —इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जिन जीवों के शरीर से धनुष बना, वे जीव भी कायिकी यावत् पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। इसी प्रकार जिन जीवों के शरीर से धनु:पृष्ठ , प्रत्यञ्चा, स्नायु और बाण बने, वे जीव पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। शर, बाण का पक्ष, बाण काफलक और स्नायुये सब जिन जीवों के शरीर से बने हैं, वे जीव भी पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। १३५. अहे णं से उसू अप्पणो गुरुत्ताए, भारि- अथ स इषु: आत्मन: गुरुकतया, भारिकतया, १३५. वह बाण अपनी गुरुता से, भारीपन से, गुरुतम यत्ताए, गुरुसंभारियत्ताए अहे वीससाए गुरुसंभारिकतया अधो विस्रसात: प्रत्यवपतन् भारीपन से स्वाभाविक रूप से नीचे आता हुआ पच्चोवयमाणे जाई तत्थ पाणाई जाव यान् तत्र प्राणान् यावज्जीविता व्यपरोपयति वहाँ रहे हुए प्राण यावत् सत्त्वों का प्राण-वियोजन जीवियाओ ववरोवेइ तावं च णं से पुरिसे तावच् च स पुरुष: कतिक्रियः? करता है, तब वह पुरुष कितनी क्रियाओं से स्पृष्ट कतिकिरिए? होता है? गोयमा! जावं चणं से उसू अप्पणो गुरुयत्ताए गौतम ! यावच् च स इषुः आत्मन: गुरुकतया गौतम ! जिस समय बाण अपनी गुरुता से यावत् प्राण जाव जीवियाओ ववरोवेइ तावं च णं से यावज् जीविताद् व्यपरोपयति तावच् च स का वियोजन करता है, तब वह पुरुष कायिकी यावत् पुरिसे काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पुढे। पुरुष: कायिक्या यावच् चतसृभिः क्रियाभिः चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जिन जीवों के शरीर जेसि पियणं जीवाणं सरीरेहिंधणू निव्वत्तिए स्पृष्ट :। येषामपि च जीवानां शरीरैः धनुः ___ से धनुष, धनु:पृष्ठ , प्रत्यञ्चा और स्नायु बने हैं, वे ते विजीवा चउहि किरियाहिं, धणुपट्टे चउहिं, निर्वर्तितं तेऽपि जीवा: चतसृभिः क्रियाभिः जीव भी चार क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। बाण, शर, जीवा चउहि, हारू चउहिं, उसू पंचहिं- धनु:पृष्ठं चतसृभिः, जीवा: चतसृभिः, स्नायु: बाण का पक्ष, बाण काफलक और स्नायु-ये सब सरे, पत्तणे, फले, हारू पंचहि। जे वि य से चतसृभिः, इषुः पञ्चभिः-शर: पत्रणं, फलं जिन जीवों के शरीर से बने हैं, वे जीव पांच क्रियाओं जीवा अहे पच्चोवयमाणस्स उवग्गहे वटुंति स्नायु: पञ्चभिः। येऽपि च तस्य जीवा: अधः से स्पृष्ट होते हैं। जो जीव नीचे गिरते हुए बाण के ते वि य णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं प्रत्यवपतत: उपग्रहे वर्तन्ते तेऽपि च जीवा: आलम्बन बनते हैं, वे जीव भी कायिकी यावत् पांच किरियाहिं पुट्ठा। कायिक्या यावत् पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टाः। क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। भाष्य १. सूत्र १३४,१३५ कर्म का बन्ध हो तो मुक्त जीवों के शरीर से भी कर्म का बन्ध माना जाना बाण फेंक कर प्राणियों को परिताप देने वाला और उनका चाहिए। उनका शरीर भी प्राणातिपात का हेतु बन सकता है। जैसेधनुष्य आदि वध करने वाला पुरुष पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। यह विषय बुद्धिगम्य है। का शरीर क्रियाओं का हेतु बनता है, वैसे ही कुछ वनस्पति-जीवों के शरीर से किन्तु जिन जीवों के शरीर से धनुष्य, जीवा (प्रत्यञ्चा) आदि का निर्माण पात्र आदि उपकरणों का निर्माण होता है। वे जीव रक्षा के हेतु बनते हैं, हुआ है, वे जीव भी पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं, यह विषय बुद्धिगम्य नहीं इसलिए उनसे पुण्य कर्म का बन्ध होना चाहिए। इस प्रश्न का उत्तर है-बन्ध अविरति के परिणाम से होता है। अविरति का परिणाम जैसे पुरुष में है वैसा ही वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है कि यदि अचेतन शरीर से भी उन जीवों में है, जिनके शरीर से धनुष्य आदि का निर्माण हुआ है। मुक्त जीवों Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy