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भगवई
१७९
श.५: उ.६: सू.१३३,१३४
अगणिकाए महाकम्मादि पदं
अग्निकाये महाकर्मादि-पदम् अग्निकाय में महाकर्म आदि-पद १३३. अगणिकाए णं भंते ! अहुणोज्जलिए अग्निकाय: भदन्त ! अधुनोज्ज्वलित: सन् १३३. 'भन्ते! तत्काल प्रज्वलित होता हुआ अग्निकाय
समाणे महाकम्मतराए चेव, महाकिरिय- महाकर्मतरक: चैव, महाक्रियातरक: चैव, महाकर्म वाला, महाक्रिया वाला, महाआश्रव वाला तराए चेव, महासवतराए चेव, महावेदण- महासवतरकः चैव, महावेदनतरकः चैव और महावेदना वाला होता है और वह क्षण-क्षण तराए चेव भवइ। अहे णं समए-समए भवति। अथ समये-समये व्यपकृष्यमाण:- क्षीण होता हुआ अन्तिम समय में कोयला बन जाता वोक्कसिज्जमाणे-वोक्कसिज्जमाणे चरि- व्यपकृष्यमाण: चरमकालसमये अङ्गारभूत: है, मुर्मर बन जाता है, क्षार बन जाता है, क्या उसके मकालसमयंसि इंगालब्भूए मुमुरब्भूए छा- मुर्मुरभूत: क्षारिकाभूत: ततः पश्चात् पश्चात् वह अल्प कर्म वाला, अल्प क्रिया वाला, रियभूए, तओ पच्छा अप्पकम्मतराए चेव, अल्पकर्मतरकः चैव, अल्पक्रियातरक: अल्प आश्रव वाला और अल्प वेदना वाला होता अप्पकिरियतराए चेव, अप्पासवतराए चेव, चैव, अल्पास्रवतरकः चैव अल्पवेदनअप्पवेयणतराए चेव भवइ?
तरकः चैव भवति? हंता गोयमा! अगणिकाए णं अहुणोज्जलिए हन्त गौतम ! अग्निकाय: अधुनोज्ज्वलितः हां, गौतम ! तत्काल प्रज्वलित होता हुआ अग्निसमाणे तं चेव॥ सन् तच्चैव।
काय महाकर्म वाला यावत् क्षीण होता हुआ अल्प वेदना वाला होता है।
भाष्य
१. सूत्र १३३
अग्नि में ये सब अल्प होते हैं। कर्म और आश्रव की अधिकता दाह की प्रस्तुत सूत्र में अग्नि की दो अवस्थाओं का सापेक्ष प्रतिपादन है। अधिकता के कारण ही मानी गई है। दाह-क्रिया अल्प होने पर शेष सब तत्काल प्रज्वलित अग्नि में क्रिया-दाहात्मक क्रिया अधिक होती है। अपने आप अल्प हो जाते हैं। बुझती हुई अग्नि में क्रिया–दाहात्मक क्रिया—अल्प होती है। तत्काल वृत्तिकार ने अंगार और मुर्मुर के प्रसंग में अल्प शब्द का अर्थ प्रज्वलित अग्नि में दाहक्रिया अधिक होती है, इसलिए उसके कर्मबन्ध स्तोक' किया है। राख अचित्त हो जाती है, इस अपेक्षा से क्षार के प्रसंग में
और आश्रव अधिक होते हैं। प्रज्वलन-अवस्था में अग्निकायिक जीवों में अल्प' शब्द का अर्थ अभाव किया है। परस्पर शरीर-संघर्षण से उत्पन्न वेदना अधिक होती है। बुझती हुई
धणुपक्खेवे किरिया-पदं
धनु:प्रक्षेपे क्रिया-पदम् १३४. पुरिसे णं भंते! धणुं परामुसइ, परामुसित्ता पुरुष: भदन्त ! धनु: परामृशति, परामृश्य इषु उसुं परामुसइ, परामुसित्ता ठाणं ठाइ, ठिच्चा परामृशति, परामृश्य स्थाने तिष्ठति, स्थित्वा आयतकण्णायतं उसु करेति, उढं वेहासं आयतकर्णाऽऽयत्तम् इषु करोति, ऊर्ध्वं उसु उम्विहइ।
विहायसि इषुम् उत्क्षिपति।
तए णं से उसू उड्ढे वेहासं उविहिए समाणे तत: स इषु: ऊर्ध्वं विहायसि उत्क्षिप्तः सन् जाई तत्थ पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई ___ यान् तत्र प्राणान् भूतान् जीवान् सत्त्वान् अभिहणइ वतेति लेसेति संघाएइ संघट्टेति अभिहन्ति वर्तयति श्लेषति संघातयति परितावेइ किलामेइ, ठाणाओ ठाणं संकामेइ, संघट्टयति परितापयति क्लमयति, स्थानात् जीवियाओ ववरोवेइ। तए ण भंते ! से पुरिसे स्थानं संक्रमयति जीविताद् व्यपरोपयति। कतिकिरिए?
तत: भदन्त ! स पुरुष: कतिक्रियः?
धनु:प्रक्षेप में क्रिया-पद १३४. ' भन्ते ! एक पुरुष धनुष हाथ में लेता है, लेकर
बाण को धनुष पर चढ़ाता है, चढ़ा कर स्थान (वैशाख नाम युद्ध की मुद्रा) में खड़ा होता है, खड़ा हो कर बाण को कान की लम्बाई तक खींचता है
और ऊपर आकाश की ओर उसे फेंकता है। ऊपर आकाश की ओर फेंका हुआ वह बाण, वहाँ जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व हैं, उनका अभिघात करता है, उनका वर्तुल बनाता है, उन्हें चोट पहुँचाता है, उनके अवयवों को संहत करता है, उन्हें संचालित करता है, परितप्त करता है, क्लान्त करता है, स्थानान्तरित करता है और उनका प्राण-वियोजन करता है। भन्ते ! उस बाण को फेंकने वाला पुरुष कितनी क्रिया से स्पृष्ट होता है?
१. भ. वृ. ५/१३३---अंगाराद्यवस्थामाश्रित्य अल्पशब्द: स्तोकार्थः, क्षारावस्थायां त्वभावार्थः।
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