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श.५: उ.६: सू.१२८-१३२
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भगवई
गृहपति के वे सब क्रियाएं पतली हो जाती हैं।
गाहावइस्स णं ताओ सव्वाओ पयणु- गृहपते: ता: सर्वाः प्रतनुकीभवन्ति। ईभवंति॥
१३२. गाहावइस्सणं भंते! भंडं विक्किणमाणस्स गृहपते: भदन्त ! भाण्डं विक्रीणानस्य क्रयिकः १३२. भंते ! एक गृहपति भाण्ड बैंच रहा है, ग्राहक कइए भंडं साइजेजा, धणे से उवणीए सिया। भाण्डं स्वादयेत् , धनं तस्य उपनीतं स्यात्। भाण्ड को वचनबद्ध हो कर स्वीकार कर लेता है गाहावइस्स णं भंते ! ताओ धणाओ किं गृहपतेः भदन्त ! तस्माद् धनाद् किम् आर- और गृहपति धन ग्रहण कर लेता है। आरंभिया किरिया कज्जइ? जाव मिच्छा- भिकी क्रिया क्रियते ? यावन् मिथ्यादर्शन- भन्ते! उस धन से गृहपति के क्या आरम्भिकी क्रिया दसणकिरिया कजइ ? क्रिया क्रियते?
होती है? यावत् मिथ्यादर्शनक्रिया होती है? " ! कइयस्स वा ताओ धणाओ किं आरंभिया क्रयिकस्य वा तस्माद् धनात् किम् आर- उस धन से ग्राहक के क्या आरम्भिकी क्रिया होती किरिया कज्जइ? जाव मिच्छादसणकिरिया भिकी क्रिया क्रियते ? यावन् मिथ्यादर्शन- है? यावत् मिथ्यादर्शनक्रिया होती है ? 4:45 कज्जइ?
क्रिया क्रियते? गोयमा ! गाहावइस्स ताओ धणाओ आरं- गौतम ! गृहपतेः तस्माद् धनाद् आरम्भिकी। गौतम ! उस धन से गृहपति के आरम्भिकी क्रिया भिया किरिया कज्जइ जाव अपच्चक्खाण- क्रिया क्रियते यावद् अप्रत्याख्यानक्रिया
खाण- क्रिया क्रियते यावद् अप्रत्याख्यानक्रिया होती है यावत् अप्रत्याख्यानक्रिया होती है। मिथ्याकिरिया कज्जइ । मिच्छादसणकिरिया सिय क्रियते । मिथ्यादर्शनक्रिया स्यात् क्रियते, दर्शनक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती। कज्जइ, सिय नो कज्जइ।
स्यान् नो क्रियते। कइयस्सणं ताओ सव्वाओ पयणुईभवंति॥ क्रयिकस्य ता: सर्वा: प्रतनुकीभवन्ति। ग्राहक के वे सब क्रियाएं पतली हो जाती हैं।
भाष्य १. सूत्र १२८-१३२
है, उस समय उसके आरम्भिकी आदि चार क्रियाएं पुष्ट होती हैं। खोज करने प्रस्तुत आलापक में क्रिया के पांच सूत्र हैं। उनमें क्रिया की सघनता पर वह वस्तु मिल जाती है, तब वे क्रियाएं पतली हो जाती हैं। खोज के समय और विरलता का तुलनात्मक दृष्टि से निरूपण किया गया है। गृहपति में प्रयत्न अधिक होता है। वस्तु के मिल जाने पर प्रयत्न का विराम हो जाता है, आरम्भिकी आदि चारों क्रियाएं नियमत: होती हैं। मिथ्यादर्शन-प्रत्ययाक्रिया इसलिए वे क्रियाएं पतली (प्रतनु) हो जाती हैं। मिथ्यादर्शन में होती है, सम्यग्दृष्टि में नहीं होती, इसीलिए वह विकल्प रूप दूसरा सूत्र -खरीददार को खरीदी हुई वस्तुप्राप्त नहीं हुई इसलिए में निर्दिष्ट है:
उसके तद्वस्तु विषयक क्रिया-चतुष्क प्रतनु होता है। बेची जाने वाली वस्तु १. आरम्भिकी क्रिया-जीवों के उपघात की प्रवृत्ति। अभी विक्रेता के अधिकार में है, इसलिए उसके क्रिया-चतुष्क पुष्ट होता है। २. पारिग्रहिकी क्रिया धन के अर्जन और रक्षण में मूर्छा की तीसरा सूत्र खरीददार को खरीदी हुई वस्तु प्राप्त हो गई,
इसलिए उसके क्रिया-चतुष्क पुष्ट होता है, विक्रेता के क्रिया-चतुष्क प्रतनु ३. मायाप्रत्ययाक्रिया--मायात्मक प्रवृत्ति।
हो जाता है। ४. अप्रत्याख्यान क्रिया-प्रत्याख्येय कषाय का प्रत्याख्यान न चौथा सूत्र खरीददार ने वस्तु खरीदने का वचन दे दिया, किन्तु करने की प्रवृत्ति
विक्रेता को उसके लिए धन नहीं दिया, इस अवस्था में विक्रेता के क्रिया५. मिथ्यादर्शन क्रिया--मिथ्यादर्शनात्मक प्रवृत्ति।
चतुष्क प्रतनु होता है। अभी 'धन' खरीददार के अधिकार में है, इसलिए उसके ये सब क्रियाएं कर्म के आश्रवण (बन्ध) की निमित्त बनती हैं। क्रिया-चतुष्क पुष्ट होता है। परिणाम की तीव्रता-मंदता आदि के कारण क्रिया की सघनता और विरलता पांचवा सूत्र विक्रेता को खरीददार से बेची हुई वस्तु का धन हो जाती है। उमास्वाति ने इसे विस्तार के साथ समझाया है
मिल गया, इस अवस्था में विक्रेता के क्रिया-चतुष्क पुष्ट होता है। खरीददार “तीव्र मन्दज्ञाताज्ञातभाववीर्याधिकरणविशेषेभ्यस्तद् का उस धन पर अधिकार नहीं रहा, इसलिए उसके क्रिया-चतुष्क प्रतनु होता
विशेषः।""
प्रस्तुत आलाप को इस सूत्र की व्याख्या के रूप में उद्धृत किया जा सकता है।
पहला सूत्र—एक गृहपति अपनी चोरी गई वस्तु की खोज करता १. त.सू.भा.वृ. ६/६-भूम्यादिकायोपघातलक्षणा शुष्कतृणादिच्छेदलेखनादिका वा- ऽप्यारम्भक्रिया।
प्रस्तुत आलापक का निष्कर्ष यह है कि वस्तु और धन जिसके अधिकार में होते हैं, उसके क्रिया सघन होती है, जिसके अधिकार में नहीं होते, उसके क्रिया प्रतनु होती हैं।
२. वही, ६/६-बहूपायार्जनरक्षणमूर्च्छलक्षणा परिग्रहक्रिया। ३.त.सू. ६/७।
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