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________________ ३६७ श.७: उ.६:सू.११७-११६ निम्नोन्नत प्रदेश समतल हो जायेंगे। ११८. तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासस्स तस्यां भदन्त! समायां भरतस्य वर्षस्य भूमेः ११८. भन्ते ! उस काल में भरत क्षेत्र की भूमि के आकार भूमीए केरिसए आगारभाव-पडोयारे भवि- कीदृशः आकारभाव-प्रत्यावतारः भविष्यति? और भाव का अवतरण कैसा होगा? स्सति? गोयमा! भूमी भविस्सति इंगालब्भूया मुम्मु- गौतम! भूमिः भविष्यति अंगारभूता मुर्मुरभूता गौतम ! उस काल में भरत क्षेत्र की भूमि अंगारों, रत्भूया छारियभूया तत्तकवेल्लयब्भूया तत्त- क्षारिकभूता तप्तकवेल्लकभूता तप्तसम- मुसुरों (भरममिश्रित-अग्निकणों), तपी हुई राख एवं समजोतिभूया धूलिबहुला रेणुबहुला पंक- ज्योतिर्भूता धूलिबहुला रेणुबहुला पड्कबहुला तपे हुए तवे के समान हो जाएगी। वह ताप से तप्त बहुला पणगबहुला चलणिबहुला बहूणं पनकबहुला चलनीबहुला बहूनां धरणीगोच- और अग्नि तुल्य हो जाएगी। वह बहुल धूलवाली, धरणिगोयराणं सत्ताणं दुन्निक्कमा यावि राणां सत्त्वानां दुनिष्कमा चापि भविष्यति। बहुल रजवाली बहुल पंकवाली, बहुल सघन कीचड़ भविस्सति । वाली और बहुल चरण प्रमाण कीचड़ वाली हो जायेगी। भूमि पर चलने वाले अनेक प्राणियों के लिए उस पर चलना कठिन हो जाएगा। ११६. तीसे णं भंते! समाए भरहे वासे मणुयाणं तस्यां भदन्त! समायां भरते वर्षे मनुजानां ११६. भन्ते! उस काल में भरत क्षेत्र के मनुष्यों का आकार केरिसए आगारभाव-पडोयारे भविस्सइ? कीदृशः आकारभाव-प्रत्यावतारः भविष्यति? और भाव का अवतरण कैसा होगा? गोयमा! मणुया भविस्संति दुरूवा दुवण्णा गौतम ! मनुजाः भविष्यन्ति 'दुरूवा' दुर्वर्णाः गौतम! उस काल में भरतक्षेत्र के मनुष्य दुःस्वभाव दुग्गंधा दुरसा दुफासा अणिट्ठा अकंता अप्पिया दुर्गन्धाः दूरसाः दुःस्पर्शाः अनिष्टाः अकान्ताः वाले, दुर्वर्ण, दुर्गन्ध, दूरस, दूःस्पर्श, अनिष्ट, अकान्त, असुभा अमणुण्णा अमणामा हीणस्सरा दीण- अप्रियाः अशुभाः अमनोज्ञाः 'अमणामा' हीन- अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अकमनीय, तथा हीन स्वर, स्सरा अणिट्ठस्सरा अकंतस्सरा अप्पियस्सरा स्वराः दीनरवराः अनिष्टस्वराः अकान्तस्वराः दीन स्वर, अनिष्ट स्वर, अकान्त स्वर, अप्रिय स्वर, असुभस्सरा अमणुण्णस्सरा अमणामस्सरा अप्रियस्वराः अशुभस्वराः अमनोज्ञस्वराः अशुभ स्वर, अमनोज्ञ स्वर, अकमनीय स्वर वाले अणादेज्जवयण-पच्चायाया, निल्लज्जा, कूड- 'अमणामस्सरा' अनादेयवचन-प्रत्याजाताः, होंगे । उनका वचन दूसरों द्वारा आदेय नहीं होगा। वे -कवड-कलह-वह-बंध-वेरनिरया, मज्जाया- निर्लज्जाः , कूट-कपट-कलह-वध-बन्ध- निर्लज्ज तथा कूट, कपट, कलह, वध, बंध और वैर तिक्कमप्पहाणा, अकज्जनिच्चुज्जता, गुरु- -वैरनिरताः, मर्यादातिक्रमप्रधानाः, अकार्य- में संलग्न रहेंगे। वे मर्यादा का अतिक्रमण करने में नियोग-विणयरहिया य, विकलरूवा, परूढ- नित्योद्यताः, गुरुनियोग-विनयरहिताः च, मुखिया, अकरणीय करने में सदा उद्यत, बड़ों के प्रति नह-केस-मंसु-रोमा, काला, खर-फरुस- विकलरूपाः, प्ररूढनख-केश-श्मश्रु-रोमाः अवश्य करणीय विनय से शून्य होंगे। उनका रूप विकल -झाम-वण्णा, फुट्टसिरा, कविलपलियकेसा, कालाः,खर-परुष-'झाम'-वर्णाः,'फुट्ट' शिरसः, होगा, उनके नख, केश, श्मश्रु, रोम बढे हुए होंगे, वे बहुण्हारुसंपिणद्ध-दुईसणिज्जरूवा, संकुडित- ___ कपिलपलितकेशाः, बहुस्नायुसंपिनद्ध- काले वर्ण वाले होंगे, वे अत्यन्त रूक्ष और मटमैले वर्ण वली-तरंगपरिवेढियंगमंगा, जरापरिणतव्व -दुर्दर्शनीयरूपाः, संकुटितवलि-तरङ्गपरिवेष्टि- वाले, फटे हुए सिर वाले, पीले और सफेद केश वाले थेरगनरा, पविरलपरिसडियदंतसेढी, उन्भ- ताङ्गाङ्गाः, जरापरिणता इव स्थविरकनराः, बहुत स्नायुओं से गूंथे हुए होने के कारण दुर्दर्शनीय डघडामुहा विसमणयणा, वंकनासा, वंक- प्रविरलपरिशटितदन्तश्रेणयः, उद्भटघट- रूप वाले, सिकुडी हुई वलि-तरंगों (झुर्रियों) से वलीविगय-भेसणमुहा, कच्छु-कसराभिभूया, मुखाः विषमनयनाः वकणसाः, वक्रवलि- परिवेष्टित प्रत्येक अंग वाले, जरा-परिणत वृद्ध मनुष्यों खरतिक्खनखकंडूइय-विक्खयतणू, ददु- विगत-भेषणमुखाः, कच्छू-'कसरा'भिभूताः, के समान, संख्या में स्वल्प और सड़ी हुई दांतों की -किडिभ-सिब्म-फुडियफरुसच्छवी, चित्तलंगा, खरतीक्ष्णनखकण्डुयित-विक्षततनवः, दद्रु- श्रेणी वाले, घड़े के मुख की भांति छोटे होठ वाले, तुच्छ टोलगति-विसमसंधिबंधण-उक्कुडुअट्ठि- किटिभ-सिध्म-स्फुटितपरुषच्छवयः, चित्र- मुख, विषम नेत्र, टेढी नाक, टेढे और झुर्रियों से विकृत गविभत्त-दुब्बला कुसंघयण-कुप्पमाण-कुसं- लाङ्गाः 'टोल गति-विषमसन्धिबन्धन-उत्कु- बने हुए भयानक मुख वाले, कच्छू (खुजली) और कसर ठिया, कुरूवा, कुट्ठाणासण-कुसेज्ज-कुभो- टुकास्थिकविभक्त-दुर्बलाः कुसंहनन-कु- (गीली खुजली) से अभिभूत, खर-तीक्ष्ण नखों से इणो, असुइणो, अणेगबाहिपरिपीलियं- प्रमाण-कुसंस्थिताः, कुरूपाः, कुस्थानासन- खुजलाने के कारण क्षत-विक्षत बनें हुए शरीर वाले, गमंगा, खलंत विब्भलगती, निरुच्छाहा, सत्त- -कुशय्या-कुभोजिनः, अशुचयः, अनेकव्याधि- दाद, कुष्ठ और सेंहुआ रोग से फटी और रूखी चमड़ी परिवज्जिया, विगयचेट्ठनट्ठतेया, अभिक्खणं परिपीडिताङ्गाङ्गाः, स्खलद्-विहलगतयः, वाले चितकबरे अंग वाले, टिड्डे की जैसी टेढ़ी-मेढ़ी सीय-उण्ह-खर-फरुसवाय-विज्झडियमलिण- निरुत्साहाः, सत्त्वपरिवर्जिताः, विगतचेष्टा- गति, टेढ़े-मेढ़े सन्धिबन्धन, हड्डियों की अव्यवस्थित पंसुरउग्गुंडियंगमंगा, बहुकोह-माण-माया, नष्टतेजसः, अभीक्ष्णं शीतोष्ण-खर-परुष- रचना और दुर्बल शरीर वाले, दोषपूर्ण संहनन, शरीरबहुलोभा, असुह-दुक्खभागी,उस्सण्णं धम्म- वात 'विज्झडिय' मलिनपांशुरजो 'उग्गुंडिय'- प्रमाण और संस्थान वाले, कुरूप, कुत्सित आसन, सण्णसम्मत्तपरिभट्ठा, उक्कोसेणं रयणिप्प- अङ्गाङ्गाः, बहुक्रोध-मान-मायाः, बहुलोभाः, कुत्सित शय्या और कुत्सित भोजन वाले, शुचि न करने माण मेत्ता, सोलसवीसतिवासपरमाउसो, पुत्त- अशुभ-दुक्खभागिनः 'उस्सण्णं' धर्मसंज्ञा- वाले, अनेक व्याधियों से पीड़ित प्रत्येक-अंग वाले, Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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