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________________ श.५: उ.२: सू.३१-४५ १३८ भगवई (पू. भ. ५/४०) गोयमा! जया णं वाउयाए अहारियं रियति, गौतम ! यदा वायुकायः यथेर्यं रीयते, तदा तया णं इसिं पुरेवाया जाव वायंति ॥ ईषत् पुरोवाता: यावद् वान्ति। (५/४० की तरह) गौतम ! जिस समय वायुकाय यर्यं (अपनी स्वाभाविक गति से) चलता है, उस समय ईषत् पुरोवात यावत् महावात चलते हैं। अस्तिभदन्त ! ईषत् पुरोवाता:? ४२. अत्थि णं भंते ! ईसिं पुरेवाया? (पू. भ. ५/४०) हंता अत्थि॥ ४२. भन्ते! क्या ईषत् पुरोवात आदि चलते हैं? (५/४० की तरह) हां, चलते हैं। हन्त अस्ति। कदा भदन्त ! ईषत् पुरोवाता:? ४३. कया णं भंते ! ईसिं पुरेवाया? (पू. भ.५/४०) गोयमा! जयाणं वाउयाए स्त्तरकिरियं रियइ, तया णं ईसिं पुरेवाया ज.व वायंति॥ (पू.भ.५/४०) गौतम ! यदा वायुकाय: उत्तरक्रियं रीयते, तदा ईषत् पुरोवाता: यावद् वान्ति। ४३. भन्ते ! ईषत् पुरोवात आदि कब चलते हैं। (५/४० की तरह) गौतम! जिस समय वायुकाय उत्तरक्रिया (वैक्रिय शरीर की गति) से चलता है, उस समय ईषत् पुरोवात यावत् महावात चलते हैं। (५/४० की तरह) अस्ति भदन्त ! ईषत् पुरोवाता:? ४४. अत्थि णं भंते ! ईसिं पुरेवाया? (पू. भ. ५/४०) हंता अत्थि॥ ४४. भन्ते ! ईषत् पुरोवात यावत् महावात चलते हैं? (५/४० की तरह) हां, चलते हैं। हन्त अस्ति। ४५. कया णं भंते ! ईसिं पुरेवाया पच्छा वाया? कदाभदन्त! ईषत् पुरोवाता: पश्चाद् वाताः? ४५. भन्ते ! ईषत् पुरोवात पश्चाद्वात आदि कब (पू. भ. ५/४०) चलते हैं? (५/४० की तरह) गोयमा ! जया णं वाउकुमारा, वाउकुमा- गौतम ! यदा वायुकुमारा:, वाायुकुमार्यो वा गौतम ! जिस समय वायुकुमार और वायुकुमारियां रीओ वा अप्पणो परस्स वा तदुभयस्स वा आत्मनः परस्य वा तदुभयस्य वा अर्थाय अपने लिए, औरों के लिए या दोनों के लिए वायुकाय अट्ठाए वाउकायं उदीरेंति तया णं ईसिं वायुकायम् उदीरयन्ति तदा ईगत् पुरोवाता: की उदीरणा करती हैं, उस समय ईषत् पुरोवात यावत् पुरेवाया जाव वायंति॥ (पू. भ. ५/४०) यावद् वान्ति। महावात चलते हैं। (५/४० की तरह) भाष्य पुरोवात- १. स्नेहयुक्तवायु, २. पूर्वीवायु। पथ्यवात-१. वनस्पति के लिए हितकर वायु, २. पश्चिमी वायु। १. सूत्र ३१-४५ प्रस्तुत आलापक में वायु के प्रकार, उनका गति-क्षेत्र और गति के नियमों का प्रतिपादन किया गया है। वायु के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं: पुरोवात – पूर्वी वायु। पश्चाद्वात-पश्चिमी वायु। मन्दवात-मन्दगति से चलने वाली वायु । महावात- तेज गति से चलने वाली वायु। अभयदेवसूरि ने पुरोवात का अर्थ 'स्नेह युक्त वायु' किया है। पच्छावायु-पच्छा शब्द के दो संस्कृत रूप हो सकते हैं—पश्चात् और पथ्या। प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में अभयदेवसूरि इसका अर्थ पथ्य-'वनस्पति आदि के लिए हितकर' करते हैं।' ज्ञाता. की वृत्ति में अभयदेवसूरि ने इन दोनों के दो-दो अर्थ किए हैं: प्रस्तुत आगम के कुछ आदर्शों में पत्था' पाठ मिलता है। अभयदेवसूरि ने भी इस पाठ के आधार पर पथ्य शब्द की व्याख्या की है। नायाधम्मकहाओ (१/११/२,४,६,८) में 'पच्छा' पाठ उपलब्ध है इसलिए उसका वैकल्पिक अर्थ 'पश्चात्' किया है। वास्तव में मूलपाठ पच्छा' ही होना चाहिए। इस वायु-चतुष्क में दो विपरीत युगल हैं। एक युगल है-पूर्वीवायु और पश्चिमी वायु। दूसरा युगल है-मन्दवायु और महावायु। पथ्य का अर्थ वनस्पति के लिए हितकर' किया गया है, वह विमर्शनीय है। नायाधम्मकहाओ के अनुसार द्वीप और समुद्र में चारों १. भ.वृ.५/३१- 'ईसिं पुरेवायत्ति' मनाक् सस्नेहवाता: पत्थावाय' त्ति पथ्या वनस्पत्यादिहिता वायवः। २. ज्ञाता. वृ.प.१७९ - ईषत् पुरोवाता:--मनाक सस्नेहवाता इत्यर्थ: पूर्वदिक संबंधिनो वा, पथ्यावाता-वनस्पतीनां सामान्येन हिता वायवः पश्चाद्वाता वा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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