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________________ भगवई श.५: उ.२. सू.३५-४९ नहीं। प्रकार की वायु चलती है, तब समुद्र तटवर्ती 'दावद्दव' (दावद्रव) वृक्ष उसकी गति के तीन नियम हैंपत्रित, पुष्पित और फलित होते हैं। इसका निष्कर्ष यह है कि वनस्पति के १. यथारीति गति-जब वह अपनी स्वाभाविक गति से चलती लिए चारों प्रकार की वायु हितकर होती है, इसलिए पथ्य' के अर्थ का कोई है। विशेष महत्त्व नहीं है। ‘पच्छा' के स्थान पर पत्था' पाठ के कारण ही यह २. उत्तरक्रिया गति-वायुकाय का मूल शरीर औदारिक है। अर्थविपर्यय हुआ है। प्राचीन लिपि में संयुक्तत्थ्' और संयुक्तच्छ' में प्राय: उसका उत्तर शरीर वैक्रिय है। जब वैक्रिय शरीर द्वारा गति होती है, वह उत्तर सादृश्य है। इसलिए पच्छा' के स्थान पर पत्था' पाठ होना आश्चर्य की बात क्रिया है।" ३. उदीरणाजनित गति- यह गति वायुकाय देवों द्वारा प्रेरित सूत्र ३२ से ३५ तक चार दिशाओं और चार विदिशाओं में वायु की होती है। गति का नियम प्रतिपादित है। वृत्तिकार ने वाचनान्तर का उल्लेख किया है। उसके अनुसार सूत्र ३६ से ३९ तक यह प्रतिपादित है--द्वीपों और समुद्रों में महावात की यथारीति गति नहीं होती, वह शेषत्रिक की होती है। मन्दवात चारों प्रकार की वायु होती है। किन्तु उन दोनों में एक साथ एक प्रकार की उत्तरक्रिया गति नहीं होती, शेषत्रिक की होती है। उदीरणाजनित गति की वायु नहीं चलती। द्वीप में यदि मंदवात चलता है तो समुद्र में महावात सबकी होती है।' चलेगा। इसी प्रकार द्वीप में यदि महावात चलता है तो समुद्र में मन्दवात वायुकाय में वैक्रिय शरीर का अस्तित्व स्वीकृत है। वैक्रिय शरीर चलेगा। इस विपरीत गति के कारण ही लवण समुद्र वेला का अतिक्रमण का अर्थ है विविध क्रियाएं करने वाला शरीर। किन्तु वायुकाय उसके द्वारा नहीं करता। विविध रूपों का निर्माण करने में समर्थ नहीं है। वह विविध प्रकार की गति सूत्र ४० से ४५ तक वायु की गति के नियम का प्रतिपादन है। करने में समर्थ है। ४६. वाउयाएणं भंते ! वाउयायं चेव आणमंति वायुकाय: भदन्त ! वायुकायं चैव आनन्ति ४६. भन्ते ! क्या वायुकायिक जीव वायुकाय का ही वा? पाणमंति वा? ऊससंति वा? नीससंति वा? प्राणन्ति वा? उच्छ्वसन्ति वा? नि:- आन, अपान तथा उच्छ्वास, नि:श्वास करते हैं? वा? श्वसन्ति वा? हंता गोयमा ! वाउयाए णं वाउयाए चेव हन्त गौतम ! वायुकाया: वायुकायान् चैव हां, गौतम! वायुकायिक जीव वायुकाय काही आन, आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा नि:- अपान तथा उच्छ्वास, नि:श्वास करते हैं। नीससंति वा॥ श्वसन्ति वा? ४७. वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव अणेग- सयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चायाति? हंता गोयमा! वाउयाए णं वाउयाए चेव अणेगसयसहस्स्खु त्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चायाति।। वायुकाय: भदन्त ! वायुकाये चैव अनेक- ४७. भन्ते ! क्या वायुकायिक जीव वायुकाय में ही शतसहस्रकृत्वः अवद्राय -अवद्राय तत्रैव अनेक लाख बार मर-मर कर वहीं पुन:पुन: उत्पन्न भूयो-भूय: प्रत्यायाति? होता है? हन्त गौतम! वायुकाय: वायुकाये चैव अनेक- हां गौतम! वायुकायिक जीव वायुकाय में ही अनेक शतसहस्रकृत्व: अवद्राय-अवद्राय तत्रैव लाख बार मर-मर कर वहीं पुन:-पुन: उत्पन्न होता भूयो-भूयः प्रत्यायातिा ४८.से भंते ! किं पुढे उद्दाति? अपुढे उद्दाति? स: भदन्त ! किं स्पृष्ट : अवद्राति? अस्पृष्ट : ४८. भन्ते! क्या वायुकायिक जीव स्पृष्ट होकर मरता अवद्राति? है अथवा अस्पृष्ट होकर मरता है? गोयमा ! पुढे उद्दाति, नो अपुढे उद्दाति।। गौतम! स्पृष्ट : अवद्राति, नोअस्पृष्टः अवद्राति। गौतम ! वह स्पृष्ट होकर मरता है, अस्पृष्ट रहकर नहीं मरता। ४९. से भंते ! किं ससरीरी निक्खमइ? असरीरी स: भदन्त ? किं सशरीरी निष्क्रामति? अशरी- ४९. भन्ते ! वायुकायिक जीव सशरीर निष्क्रमण करता निक्खमई? री निष्क्रामति? है अथवा अशरीर निष्क्रमण करता है? १. नाया. १/११/२। ४. भ.७.५/४३-वायुकायस्य हि मूलशरीरमौदारिकमुत्तरं तु वैक्रियमत उत्तरा-उत्तर२. भ.वृ. ५/३९–अन्योन्यव्यत्यासेन यदेके ईषत्पुरोवातादि विशेषेण वान्ति तदेतरे न तथाविधा शरीराश्रया क्रिया गतिलक्षणा यत्र गमने तदुत्तरक्रियमा वान्तीत्यर्थः, 'वेलं नाइक्कमई' त्ति तथाविधवातद्रव्यसामर्थ्याद् वेलायास्तथास्वभावत्वाच्चेति ५. भ.व.५/४३ वाचनान्तरे त्वाचं कारणं महावातवर्जितानां, द्वितीयं तु मन्दवातबर्जितानां. ३. भ.वृ.५/४१-चीतं रीति: स्वभाव इत्यर्थः तस्यानतिक्रमेण यथा रीतं 'रीयते' गच्छति यदा तृतीयं तु चतुर्णामप्युक्तमिति स्वाभाविक्या गत्या गच्छ तीत्यर्थः। ६. भ. २/१० Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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