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________________ श.६ : उ.४ : सू.६३ २५६ भगवई ६३. आहारगाणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। आहारकाणां जीवैकेन्द्रियवर्ज: त्रिकभङ्गः। ६३. आहारक जीवों में जीव-पद और एकेन्द्रिय-पद अणाहारगाणं जीवेगिंदियवज्जा छन्भंगा अनाहारकाणां जीवैकेन्द्रियवर्जा: षड्भङ्गाः को छोड़कर तीन भंग होते हैं। अनाहारक जीवों में एवं भाणियव्वा-१. सपदेसा वा २. अप- एवं भणितव्या:--१. सप्रदेशा: वा २. अप्र- बहुवचनान्त जीव-पद और एकेन्द्रिय-पद को देसा वा ३. अहवा सपदेसे य अपदेसे य देशा: वा ३. अथवा सप्रदेशश्च अप्रदेशश्च छोड़कर छह भंग इस प्रकार हैं—१. अनेक जीव ४. अहवा सपदेसे य अपदेसा य ५. अहवा ४. अथवा सप्रदेशश्च अप्रदेशाश्च ५. अ- सप्रदेश हैं २. अनेक जीव अप्रदेश हैं ३. अथवा सपदेसा य अपदेसे य ६. अहवा सपदेसा य थवा सप्रदेशाश्च अप्रदेशश्च ६. अथवा एक जीव सप्रदेश हैं, एक जीव अप्रदेश है। ४. अथवा अपदेसा या सिद्धेहिं तियभंगो। सप्रदेशाश्च अप्रदेशाश्च । सिद्धेषु त्रिकभङ्गः। एक जीव सप्रदेश है, अनेक जीव अप्रदेश हैं। ५. अथवा अनेक जीव सप्रदेश है, एक जीव अप्रदेश है। ६. अथवा अनेक जीव सप्रदेश हैं, अनेक जीव अप्रदेश है। सिद्ध जीवों में तीन भंग होते हैं। भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया जहा ओहिया। भवसिद्धिकाः, अभवसिद्धिका: यथा औघि- भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक जीव औधिक जीवों नोभवसिद्धिय-नोअभवसिद्धिय-जीवसिद्धे- का:। नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक- की भांति वक्तव्य हैं। नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक हिं तियभंगो। -जीव-सिद्धयोः त्रिकभङ्गः। जीव और सिद्ध के तीन-तीन भंग होते हैं। सण्णीहिं जीवादिओ तियभंगो। असण्णीहिं संशिषु जीवादिक: त्रिकभङ्गः। असंज्ञिषु एके- जीव आदि पदों (जीव तथा नैरयिक आदि दण्डकों) एगिदियवज्जो तियभंगो। नेरइयदेवमणुएहिं न्द्रियवर्ज: त्रिकभङ्गः। नैरयिक-देव-मनुजेषु में संज्ञी जीवों के तीन भंग होते हैं। असंज्ञी जीवों में छन्भंगो। नोसण्णि-नोअसण्णि-जीव- षड्भङ्गः। नोसंज्ञि-नोअसंज्ञि-जीव-मनुज- एकेद्रिय को छोडकर तीन भंग होते हैं। नैरयिक, देव -मणुय-सिद्धेहिं तियभंगो। -सिद्धेषु त्रिकभङ्गः। और मनुष्यों में छह भंग होते हैं। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीवों में जीव, मनुष्य और सिद्ध के तीन-तीन भंग होते हैं। सलेसा जहा ओहिया। कण्हलेस्सा, नील- सलेश्या: यथा औधिकाः। कृष्णलेश्या:, लेश्या-युक्त जीवों की भंग-व्यवस्था औधिक जीव लेस्सा, काउलेस्सा जहा आहारओ, नवरं नीललेश्या:, कापोतलेश्या: यथा आहार- की भांति वक्तव्य है। कृष्ण लेश्या वाले, नील लेश्या -~-जस्स अत्थि एयाओ। तेउलेस्साए जीवा- कः, नवरं—यस्य सन्ति एताः। तेजोलेश्या- वाले और कापोत लेश्या वाले जीवों की भंगदिओ तियभंगो, नवर—पुढविक्काइएसु, यां जीवादिक: त्रिकभङ्ग, नवरं—पृथिवी- व्यवस्था आहारक की भांति वक्तव्य है। केवल इतना आउवणप्फतीसु छन्भंगा। पम्हलेस्ससुक्क- कायिकेषु, अब्वनस्पतिषु षड्भङ्गाः। पद्म- विशेष है—जिन दण्डकों में ये लेश्याएं उपलब्ध हैं। लेस्साए जीवादिओ तियभंगो। अलेसेहिं लेश्यशुक्ललेश्यो: जीवादिकः त्रिकभङ्गः। तैजस लेश्या वाले जीवों के जीव आदि पदों (नारक, जीव-सिद्धेहिं तियभंगो। मणुएसु छब्भंगा। अलेश्येषु जीव-सिद्धेषु त्रिकभङ्गः। मनुजेषु तेजो, वायु, विकलेन्द्रिय और सिद्ध को वर्ज कर) में षड्-भङ्गाः। तीन भंग होते हैं। केवल इतना विशेष है—पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में छह भंग होते हैं। पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या वाले जीवों के जीव आदि पदों (पंचेन्द्रिय तिर्यक् , मनुष्य और वैमानिक पदों) में तीन भंग होते हैं। लेश्या-रहित जीव और सिद्धों में तीन भंग होते हैं। मनुष्यों में छह भंग होते हैं। सम्मद्दिट्ठीहिं जीवादिओ तियभंगो। विग- सम्यग्दृष्टिषु जीवादिक: त्रिकभङ्गः। विकले- सम्यग्दृष्टि जीवों के जीव आदि पदों में तीन भंग लिदिएसु छन्भंगा। मिच्छदिट्ठीहिं एगिदिय- न्द्रियेषु षड्भङ्गाः। मिथ्यादृष्टिषु एकेन्द्रियवर्ज: होते हैं। विकलेन्द्रिय जीवों में छह भंग होते हैं। वज्जो तियभंगो। सम्मामिच्छदिट्ठीहिं छब्भं- त्रिकभङ्गः। सम्यमिथ्यादृष्टिषु षड्भङ्गाः। मिथ्यादृष्टि जीवों में एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग गा। होते हैं। सम्यमिथ्यादृष्टि जीवों में छह भंग होते हैं। संजएहिं जीवादिओ तियभंगो। अस्संजएहिं संयतेषु जीवादिकः त्रिकभङ्गः। असंयतेषु । संयत जीवों के जीव आदि पदों में तीन भंग होते हैं। एगिदियवज्जो तियभंगो । संजयासंजएहिं एकेन्द्रियवर्जः त्रिकभङ्गः। संयतासंयतेषु असंयत जीवों में एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग तियभंगो जीवादिओ। नोसंजय-नोअसंजय- त्रिकभङ्ग: जीवादिक। नोसंयत-नोअसंयत- होते हैं। संयतासंयत जीवों के जीव आदि पदों में -नोसंजयासंजय-जीव-सिद्धेहिं तियभंगो। -नोसंयतासंयत-जीव-सिद्धेषु त्रिकभङ्गः। तीन भङ्ग होते हैं। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयता Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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