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________________ भगवई सकसाईहिं जीवादिओ तियभंगो एगिदिए अभंगकं । कोहकसाईहिं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो देवेहिं तब्भंगा माणकसाई मायाकसाईंहिं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो नेरइय-देवेहिं छब्भंगा। लोभकसाईहिं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। नेरइएसु छब्भंगा । अकसाई जीव-माणुएहिं सिद्धेहिं तियांगो ओहियनाणे, आभिणिलोहियनाणे, सुयनाणे वादितियभंग । विगलिंदिएहिं छब्भंगा । ओहिनाणे मणपज्जवनाणे केवलनाणे जीवादिओ तियभंगो। ओहिए अण्णाणे, मइअण्णाणे, सुयअण्णाणे एगिंदियवज्जो तियभंगो। विभंगनाणे जीवादिओ तिवगंगो सजोगी जहा ओहिओ। गणजोगी, वइजोगी, कायजोगी जीवादिओ तियभंगो, नवरं - कायजोगी एगिदिया, ते अभंगयं । अजोगी जहा अलेस्सा। सवेदगा जहा सकसाई इत्थिवेदक पुरिस वेदग-नपुंसगवेदगेसु जीवादिओ तियभंगो, नवरं – नपुं सगवेदे एगिंदिए अभंगयं । अवेदगा जहा अकसाई । ससरीरी जहा ओहिओ । ओरालियवेडव्वियसरीराणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। आहारगसरीरे जीव- मणुएसु छब्भंगा, तेयगकम्मगाई जहा ओहिया । असरीरेहिं जीवसिद्धेहिं तियभंगो। आहारपज्जतीए, सरीरपज्जतीए, इंदिय पज्जत्तीए, आणापाणपज्जत्तीए जीवेगिंदियबन्यो तियभंगो, भासामणपज्जतीए जहा सण्णी । आहार- अपज्जत्तीए जहा अणा २५७ सागारोवउत्त- अणागारोवउत्तेहिं जीवेगिंदि- साकारोपयुक्त-अनाकारोपयुक्तेषु जीवैकेयवज्जो तियांगो न्द्रियवर्ज: त्रिकभङ्गः । सवेदका यथा सकषायः स्त्रीवेदक-पुरुषवेदक - नपुंसकवेदकेषु जीवादिकः, त्रिकभङ्गः, नवरं – नपुसंकवेदे एकेन्द्रियेषु अभङ्गकम् । अवेदका: यथा अकषायः । Jain Education International सकषायेषु जीवादिकः त्रिकभङ्गः । एकेन्द्रियेषु अभंगकम्। क्रोधकषाविषु जीवकेन्द्रियवर्जः त्रिकभनः । देवेषु षड्भकाः मानकषायि मायाकषायिषु जीवकेन्द्रियवर्गः त्रिकभङ्गः। नैरयिक- देवेषु षड्भङ्गाः । लोभकषायिषु जीवै केन्द्रियवर्ज: त्रिकभङ्गः । नैरयिकेषु षभाः। अकषायि जीव-मनुजेषु सिद्धेषु त्रिकभङ्गः । औधिकज्ञाने, आभिनिबोधिकज्ञाने, श्रुतज्ञाने जीवादिक: त्रिकभङ्गः। विकलेन्द्रियेषु षड्भङ्गाः । अवधिज्ञाने, मनः पर्यवज्ञाने, केबलवाने जीवादिक: त्रिकभतः । औधिके अज्ञाने, मत्त्वज्ञाने, श्रुताज्ञाने, एकेन्द्रियवर्ज: त्रिकभङ्गः । विभज्ञाने जीवादिक: त्रिकभङ्गः । " सयोगी यथा औधिकः ॥ मनोयोगी, वाम्योगी, काययोगी जीवादिकः त्रिकभत्र: नवकाययोगी एकेन्द्रिया:, तेषु अभत्रकम् । अयोगी यथा अलेश्याः ॥ सशरीरी यथा औधिकः । औदारिक-वैक्रियशरीराणां जीवैकेन्द्रियवर्ज: त्रिकभतः आ हारकशरीरे जीव - मनुजेषु षड्भङ्गाः, तैजसकर्मके यथा औधिकः। अशरीरेषु जीव- सिद्धेषु त्रिकभङ्गः । आहारपर्याप्ती, शरीरपर्याप्ती, इन्द्रियपर्याप्तौ, आनापानपर्याप्तौ जीवैकेन्द्रियवर्जः त्रिकभत्र, भाषा मनः पर्याप्तौ यथा संज्ञी। आहार अपर्याप्तौ यथा अनाहारकाः, For Private & Personal Use Only श. ६ : उ. ४ : सू. ६३ संयत, जीव और सिद्धों में तीन भंग होते हैं। सकषायी जीवों के जीव आदि पदों में तीन भंग होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में कोई भंग नहीं होता। क्रोध कषायी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। देवों में छह भंग होते हैं। मानकषायी और मायाकषायी जीवों में जीव तथा एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं नैरयिकों में और देवों में छह भंग होते हैं। लोभ-कषायी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। नैरयिकों में छह भंग होते हैं। अकषायी जीव और मनुष्यों तथा सिद्धों में तीन भंग होते हैं। औधिकज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी के जीव आदि पदों में तीन भंग होते हैं। विकलेन्द्रिय जीवों में छह भंग होते हैं। अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी के जीव आदि पदों में तीन भंग होते हैं। औधिक अज्ञानी, मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी में एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। विभंगज्ञानी के जीव आदि पदों में तीन भंग होते हैं। सयोगी औधिक जीव की भांति वक्तव्य है। मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी के जीव आदि पदों के तीन भंग होते हैं। केवल इतना विशेष है— काययोगी एकेन्द्रिय जीवों में कोई भंग नहीं होता। अयोगी लेश्या रहित जीवों की भांति वक्तव्य है। साकारोपयोग वाले और अनाकारोपयोग वाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। सवेदक सकषाय जीवों की भांति वक्तव्य है। स्वीवेदक, पुरुषवेदक और नपुंसकवेदक जीवों के जीव आदि पदों में तीन भंग होते हैं। केवल इतना विशेष है: नपुंसकवेदक एकेन्द्रिय जीवों में कोई भंग नहीं होता। अवेदक अकषायी की भांति वक्तव्य है। सशरीर औधिक जीव की भांति वक्तव्य है। औदारिक और वैक्रिय शरीरी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। आहारक शरीरी जीव और मनुष्यों में छह भंग होते हैं। तैजस और कर्मक शरीरी औधिक जीव की भांति वक्तव्य है। अशरीर जीव और सिद्धों में तीन भंग होते हैं। आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति और आनापान पर्याप्ति वाले जीवों में जीव तथा एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। भाषा और मन पर्याप्ति वाले जीव संझी जीव की भांति वक्तव्य हैं। आहार www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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