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________________ भगवई ६५ इसकी व्याख्या का दूसरा नय यह हो सकता है-क्रिया का अर्थ है-आश्रव और वेदना का अर्थ है-कर्म-पुद्गलों का संबन्ध। आश्रव और कर्म का पौर्वापर्य जानने के लिए यह प्रश्न पूछा गया। उसके उत्तर में भगवान् ने कहा-पहले आश्रव होता है और फिर वेदना-कर्म-पुद्गलों के स्कन्ध का बंध होता है। धवला में वेदना श.३: उ.३ : सू. १४०-१४५ की व्युत्पत्ति वर्तमान और भविष्य दोनों काल-खण्डों में की है-जिसका वेदन किया जाता है अथवा जिसका वेदन किया जाएगा, वह है वेदना।' प्रमाद-प्रत्यय और योगनिमित्त की विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य भ. वि. खण्ड १,१/१४०-१४६ का भाष्य। अंतकिरिया-पदं १४३. जीवे णं भंते! सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ? अन्तक्रिया-पदम् जीवः भदन्त! सदा समितम् एजति व्येजति चलति स्पन्दते घटते क्षुभ्यति उदीरयति तं तं भावं परिणमति? अन्तक्रिया-पद १४३. भन्ते! क्या जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त होता है तथा उस भाव (परिणाम) में परिणत होता है? हाँ, मण्डितपुत्र! जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त होता है तथा उस-उस भाव (परिणाम) में परिणत होता है। हंता मंडिअपुत्ता! जीवे णं भंते! सया हन्त मण्डितपुत्र! जीवः सदा समितम् एजति समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ व्येजति चलति स्पन्दते घटते क्षुभ्यति खुब्मइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ ॥ उदीरयति तं तं भावं परिणमति। १४४. जावं च णं भंते! से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवइ? यावच्च भदन्त! स जीवः सदा समितम् एजति व्येजति चलति स्पन्दते घटते क्षुभ्यति उदीरयति तं तं भावं परिणमति, तावच्च तस्य जीवस्य अन्ते अन्तक्रिया भवति? १४४. भन्ते! जब वह जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त होता है तथा उस-उस भाव (परिणाम) में परिणत होता है तब उस जीव के अन्तिम समय में अन्तक्रिया होती है? यह अर्थ संगत नहीं है। नो इणटे समटे ॥ नायमर्थः समर्थः । १४५. से केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ-जावं तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-यावच्च १४५. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा च णं से जीवे सया समितं एयति वेयति स जीवः सदा समितम् एजति व्येजति है-जब वह जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं चलति स्पन्दते घटते क्षुभ्यति उदीरयति तं चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स तं भावं परिणमति, तावच्च तस्य जीवस्य प्राप्त होता है तथा उस-उस भाव (परिणाम) में अंते अंतकिरिया न भवति? अन्ते अन्तक्रिया न भवति? परिणत होता है, तब उस जीव के अन्तिम समय में अन्तक्रिया नहीं होती? मंडिअपुत्ता! जावं च णं से जीवे सया मण्डितपुत्र! यावच्च स जीवः सदा समितम् मण्डितपुत्र! जब वह जीव सदा एक साथ एजन, समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ एजति व्येजति चलति स्पन्दते घटते क्षुभ्यति व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा खुन्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं उदीरयति तं तं भावं परिणमति, तावच्च को प्राप्त होता है तथा उस-उस भाव (परिणाम) च णं से जीवे-आरभइ सारभइ समारभइ, स जीवः-आरभते संरभते समारभते, आरम्भे में परिणत होता है तब वह जीव आरम्भ करता आरंभे वट्टइ सारंभे वट्टइ समारंभे वट्टइ, वर्तते संरम्भे वर्तते समारम्भे वर्तते, आरभमाणः है, संरम्भ करता है और समारंभ करता है। वह आरभमाणे सारभमाणे समारभमाणे, आरंभे संरभमाणः समारभमाणः, आरम्भे वर्तमानः आरम्भ में प्रवृत्त रहता है, संरम्भ में प्रवृत्त रहता वट्टमाणे सारंभे वट्टमाणे समारंभे वट्टमाणे संरम्भे वर्तमानः समारम्भे वर्तमानः बहूनां । है और समारम्भ में प्रवृत्त रहता है। वह आरम्भ बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं प्राणानां भूतानां जीवानां सत्त्वानां दुक्खापनाय करता हुआ, संरम्भ करता हुआ और समारम्भ दुक्खावणयाए सोयावणयाए जूरावणयाए शोकापनाय जूरापनाय 'तिप्पावणयाए पिट्टा- करता हुआ, आरम्भ में प्रवृत्त रहता हुआ, संरम्भ तिप्पावणयाए पिट्टावणयाए परियावणयाए वणयाए' परितापनाय वर्तते। में प्रवृत्त रहता हुआ और समारम्भ में प्रवृत्त रहता वट्टइ। हुआ अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःखी बनाता है, शोकाकुल करता है, जुराता (शरीर को जीर्ण अथवा खेदखिन्न करता है, रुलाता है, पीटता है और परिताप देता है। १. ष. ख. धवला, पु. ११/ख ४/भा. २/सू. १०/पृ ३०२-वेद्यते वेदिष्यते इति वेदना शब्द: सिद्धः। अविहकम्मपोग्गल खंधो वेवणा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only ate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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