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श.३ : उ.३ : सू. १३४-१४२ ये दोनों हिंसा के प्रकार हैं। पीड़ा देना परिताप है और प्राण-वियोजन करना प्राणातिपात है। मनुष्य अपने हाथ से स्वयं को पीड़ित करता है, दूसरे को पीड़ित करता है अथवा दोनों को पीड़ित करता है, यह स्वहस्तपारितापनिकी क्रिया है। कुछ चिंतकों का मत है-जैन लोग शरीर को सताते हैं और शरीर को पीड़ा देने में धर्म मानते हैं। यह मत समीचीन नहीं है। अपने शरीर को पीड़ा देना उतना ही अधर्म है जितना कि दूसरे के शरीर को पीड़ा पहुंचाना है। यह स्वहस्तपारितापनिकी क्रिया है। इससे अशुभ कर्म का बन्ध होता है। अपनी शक्ति के अनुसार तपस्या करना अपने शरीर को परिताप देना नहीं है। जहां परिताप की अनुभूति हो वहां तपस्या का स्वरूप बदल जाता है।
दूसरे के हाथ से स्वयं को, किसी दूसरे को अथवा दोनों को
भगवई पीड़ा पहुंचाने का प्रयत्न परहस्तपारितापनिकी क्रिया है।
अपने हाथ से अपना, दूसरों का या दोनों का प्राणवियोजन करना स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया है। दूसरे के हाथ से अपना, दूसरे का अथवा दोनों का प्राणवियोजन करना परहस्तप्राणातिपातक्रिया है। प्राणातिपातक्रिया की पृष्ठभूमि में भी प्रादोषिकी क्रिया है। कुछ लोग समाधिमरण के लिए किए जाने वाले अनशन को भी आत्महत्या बतलाते हैं, यह सम्यक् नहीं है। अनशन अपने हाथ से अपने प्राणों का वियोजन नहीं है। वह समाधि की साधना है। साधना करते-करते प्राण का वियोजन हो जाता है, किन्तु लक्ष्य नहीं है। आत्महत्या वह हो सकती है जिसके पीछे प्रादोषिकी क्रिया जुड़ी हुई है।
किरिया-वेदणा-पदं
क्रिया-वेदना-पदम्
क्रिया-वेदना-पद १४०. पुट्विं भंते! किरिया, पच्छा वेदणा? १४०. पूर्वं भदन्त! क्रिया, पश्चाद् वेदना? १४०. 'भंते! क्या पहले क्रिया और पीछे वेदना पुट्विं वेदणा, पच्छा किरिया ? पूर्वं वेदना, पश्चात् क्रिया?
होती है? अथवा पहले वेदना और पीछे क्रिया
होती है? मंडिअपुत्ता! पुव्विं किरिया, पच्छा वेदणा। मण्डितपुत्र! पूर्व क्रिया, पश्चाद् वेदना। नो मण्डितपत्र! पहले क्रिया और पीछे वेदना होती णो पुट्विं वेदणा, पच्छा किरिया ॥ पूर्व वेदना, पश्चात् क्रिया।
है। पहले वेदना और पीछे क्रिया नहीं होती।
अस्ति भदन्त ! श्रमणैः निर्ग्रन्थैः क्रिया क्रियते? १४१. भन्ते! क्या श्रमण-निर्ग्रन्थों के क्रिया होती
१४१. अत्थि णं भंते! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ? हंता अस्थि ॥
हन्त अस्ति।
हां, होती है।
१४२. कहण्णं भंते! समणाणं निग्गंथाणं कथं भदन्तः श्रमणेः निर्ग्रन्थेः क्रिया क्रियते? १४२. भन्ते! श्रमण-निर्ग्रन्थों के क्रिया कैसे होती किरिया कज्जइ? मंडिअपुत्ता! पमायपच्चया, जोगनिमित्तं च। मण्डितपुत्र! प्रमादप्रत्ययाद्, योगनिमित्तं च। मण्डितपुत्र! उसका प्रत्यय है-प्रमाद और उसका एवं खलु समणाणं निग्गंथाणं किरिया एवं खल श्रमणे: निर्ग्रन्थैः क्रिया क्रियते।। निमित्त है योग। इस प्रकार श्रमण-निर्ग्रन्थों के कज्जइ ॥
प्रमाद और योग-इन दो हेतुओं से क्रिया होती
भाष्य
१. सूत्र १४०-१४२
क्रिया और वेदना में कार्य-कारण-भाव का सम्बन्ध है। वृत्तिकार ने क्रिया के दो अर्थ किए हैं-क्रिया से होने वाला कर्मबंध अथवा क्रिया को ही कर्मबंध कहा जा सकता है। वेदना का अर्थ है-क्रिया का अनुभव। अनुभव कर्मपूर्वक ही होता है। यदि कर्म नहीं है तो अनुभव किसको हो?
प्रश्न यह है कि मंडितपुत्र ने यह जिज्ञासा क्यों की? क्रिया बीज है और वेदना उसका फल है। बीज के बिना फल कहां से १. भ. ७. ३/१४०-क्रिया करणं तज्जन्यत्वात्कापि क्रिया, अथवा क्रियत इति क्रिया कर्मव, वेदना तु कर्मणोऽनुभवः, सा च पश्चादेव भवति कर्मपूर्वकत्वात्तदनुभवनस्येति ॥
होगा? इस सचाई को एक सामान्य मनुष्य भी जानता है। इस जिज्ञासा के पीछे हेतु क्या है?
“वेदना" शब्द के दो अर्थ हैं-दुःख और अनुभव। अहेतुक दुःखवादी हेतु के बिना ही दुःख का होना मानते हैं। परिस्थितिवादी दुःख को परिस्थितिजनित मानते हैं। इन विकल्पों को ध्यान में रखकर मंडितपुत्र ने प्रश्न किया-दुःख क्रियापूर्वक होता है या दुःख होने के पश्चात् कोई क्रिया होती है? भगवान् ने इसका उत्तर दिया-दुःख कार्य है, इसलिए वह पश्चात् होता है, क्रिया कारण है, इसलिए वह पूर्व होती है।
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