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________________ भगवई १३८. पारियावणिआ णं भंते! किरिया कइविहा पण्णत्ता? मंडिअपुत्ता! दुविहा पण्णत्ता, तं जहासहत्थपारियावणिआ य, परहत्थपारियावणिआ य॥ श.३ : उ. ३: सू.१३४-१३६ पारितापनिकी भदन्त! क्रिया कतिविधा १३८. भन्ते! पारितापनिकी क्रिया कितने प्रकार की प्रज्ञप्ता? प्रज्ञप्त है? मण्डितपुत्र! द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद् यथा- मण्डितपुत्र! वह दो प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसेस्वहस्तपारितापनिकी च परहस्तपारितापनिकी स्वहस्तपारितापनिकी और परहस्तपारितापनिकी। च। कइविहा पण्णत्ता? मंडिअपुत्ता! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सहत्थपाणाइवायकिरिया य, परहत्थपाणाइवायकिरिया य ॥ प्राणातिपातक्रिया भदन्त ! क्रिया कतिविधा १३६. प्राणातिपातक्रिया कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है? प्रज्ञप्ता? मण्डितपुत्र! द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद् यथा- मण्डितपुत्र! वह दो प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसेस्वहस्तप्राणातिपातक्रिया च परहस्तप्राणाति- स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया और परहस्तप्राणातिपापातक्रिया च। तक्रिया। भाष्य १. सूत्र १३४-१३६ से विचार करें, तो अनुपरत कायिकी क्रिया अविरत व्यक्ति के होती है। दुष्प्रयुक्त कायिकी क्रिया अविरत और विरत दोनों के होती है, जैन धर्म निष्क्रिय धर्म नहीं है। उसमें सक्रियता और निष्क्रियता प्रमत्त संयति (छठे गुणस्थान के स्वामी) के भी होती हैं। दुष्प्रवृत्ति दोनों का संतुलन है। वह न केवल प्रवृत्तिवादी है और न केवल की दृष्टि से पुरुष निरन्तर सक्रिय रहता है। अविरति सूक्ष्म क्रिया निवृत्तिवादी। उसमें दोनों का समन्वय है। इन दोनों का प्रतिनिधित्व अचेतनस्तर की क्रिया है। दुष्प्रवृत्ति स्थूलक्रिया चेतनस्तर की क्रिया करने वाले दो तत्व हैं-आश्रव और संवर। आश्रव बंध का हेतु है. संवर मोक्ष का हेतु है। आश्रव का सम्बन्ध प्रवृत्ति से है और संवर क्रिया का दूसरा माध्यम है अधिकरण-यंत्र, शस्त्र आदि उसके का सम्बन्ध निवृत्ति से है। अध्यात्म-साधना के प्रारम्भकाल में प्रवृत्ति दो प्रकार हैं-१. संयोजनाधिकरण-यंत्र, शस्त्र आदि के पुजों को और निवृत्ति दोनों रहते हैं। उसका चरम बिन्दु प्राप्त होने पर प्रवृत्ति मिलाना। २. निर्वर्तनाधिकरण-यंत्र, शस्त्र आदि का नया निर्माण का वलय टूट जाता है। केवल निवृत्ति शेष रहती है। करना।' शस्त्र-निर्माण का हेतु अविरति और दुष्प्रवृत्ति दोनों हैं। यदि प्रवृत्ति के दो रूप बनते हैं-शुभ और अशुभ। प्रज्ञापना वृत्ति कायिकी क्रिया न हो, तो आधिकरणिकी क्रिया संभव नहीं होती। के अनुसार प्रस्तुत क्रिया-पञ्चक प्राणातिपात के निष्पादन में समर्थ शस्त्र-निर्माण की पृष्ठभूमि में है-अविरति और निर्माण की प्रक्रिया क्रिया-विशेष से संबंधित है।' क्रिया के प्रस्तुत वर्गीकरण का सम्बन्ध । है-दुष्प्रवृत्ति। अशुभ प्रवृत्ति से है। क्रिया का तीसरा प्रकार है-प्रदोष-क्रोधावेश। मनुष्य क्रिया का अर्थ है-कर्मबन्ध की हेतुभूत चेष्टा।' इसके अनेक नक क्रोधावेशजन्य क्रिया का प्रयोग कभी अपने पर, कभी दूसरे पर और वर्गीकरण हैं। कभी एक साथ दोनों पर करता है। यह है-जीवप्रादोषिकी क्रिया। क्रिया का मुख्य हेतु है-शरीर। इसलिए सबसे पहली क्रिया वृत्तिकार ने केवल क्रोधावेश को ही जीवप्रादोषिकी क्रिया माना है। कायिकी-शरीर से होने वाली प्रवृत्ति है। क्रिया का चिंतन आध्यात्मिक वह क्रोध का प्रयोग अचेतन पदार्थों पर भी करता है। यह दृष्टि से किया गया है। केवल स्थूल प्रवृत्ति ही क्रिया नहीं है, कार्य अजीव-प्रादोषिकी क्रिया है। वृत्तिकार ने केवल क्रोधावेश को भी करने का क्षण ही क्रिया नहीं है, किन्तु कार्य करने की जो रति, आन्तरिक अजीव-प्राटोषिकी क्रिया माना है।" इच्छा या आकांक्षा है, वह भी क्रिया है। प्रदोष के अग्रिम चरण दो हैं-परिताप और प्राणातिपात । इस आधार पर कायिकी क्रिया को दो भागों में विभक्त किया अविरति हिंसा का मौलिक आधार है। शस्त्र हिंसा का बाहरी कारण गया-अनुपरत कायिकी और दुष्प्रयुक्त कायिकी। स्वामित्व की दृष्टि है, प्रदोष हिंसा का आन्तरिक कारण है। परिताप और प्राणातिपात १. प्रज्ञा. बृ. प. ४४४-इह कायिकीनिया औदारिकादिक्रियाश्रिता प्राणातिपातनिर्वर्तनसमा प्रतिविशिष्टा परिग्रहाते, न या काचन कार्मणकायाश्रिता वा। २. भ. वृ. ३/१३४-करणं क्रिया कर्मबन्धनिबन्धना चेष्टा। ३. द्रष्टव्य, ठाणं २/२-३७ तथा उनका टिप्पण। ४. भ. वृ. ३/१३५-अनुपरतः-अविरतस्तस्य कायक्रियाऽनुपरतकायक्रिया, इयमविरतस्य भवति, 'दुप्पउत्तकायकिरिया य' ति दुष्टं प्रयुक्तो दुःप्रयुक्तः स चासौ कायश्च दुःप्रयुक्तकायस्तस्य क्रिया दुःप्रयुक्तकायक्रिया अथवा दुष्टं प्रयुक्त प्रयोगो यस्य दुःप्रयुक्तस्तस्य कायक्रिया दुःप्रयुक्तकायक्रिया, इयं प्रमत्तसंयतस्यापि भवति, विरतिमतः प्रमाद सति कावदुष्टप्रयोगस्य सद्भावात्। ५. भ. वृ. ३/१३६-संयोजन-हल-गर-विष-कूटयंत्राद्यङ्गानां पूर्वनिर्वर्त्तितानां मीलनं तदेवाधिकरणक्रिया संयोजनाधिकरणक्रिया 'निव्बत्तणाहिगरणकिरिया य' ति, निर्वर्तनं-असिशक्तितोमरादीनां निष्पादनं तदेवाधिकरणक्रिया निवर्त्तनाधिकरणक्रिया। ६. भ. वृ. ३/१३७-जीवस्य-आत्मपरतदुभयरूपस्योपरि प्रदेषाद् या क्रिया प्रद्वेषकरणमेव था, 'अजीवपाउसिया यत्ति अजीवस्योपरि प्रद्वेषाद् या क्रिया प्रदेषकरणमेव वा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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