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________________ ६६ भगवई श.३ : उ.३: सू.१४५-१४८ से तेणटेणं मंडिअपुत्ता! एवं बुच्चइ-जावं च णं से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति ॥ तत् तेनार्थेन मण्डितपुत्र! एवमुच्यते-यावच्च स जीवः सदा समितम् एजति व्येजति चलति स्पन्दते घटते क्षुभ्यति उदीरयति तं तं भावं परिणमति, तावच्च तस्य जीवस्य अन्ते अन्तक्रिया न भवति। मण्डितपुत्र! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जब तक जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त होता है तथा उस-उस भाव (परिणाम) में परिणत होता है, तब उस जीव के अन्तिम समय में अन्तक्रिया नहीं होती। जीवः भदन्त! सदा समितम् न एजति न व्येजति न चलति न स्पन्दते न घटते न क्षुभ्यति न उदीरयति न तं तं भावं परिणमति? १४६. जीवे णं भंते! सया समितं नो एयति नो वेयति नो चलति नो फंदइ नो घट्टइ नो खुब्भइ नो उदीरइ नो तं तं भावं परिणमइ? हंता मंडिअपुत्ता! जीवे णं सया समितं नो एयति नो वेयति नो चलति नो फंदइ नो घट्टइ नो खुब्भइ नो उदीरइ नो तं तं भावं परिणमइ ॥ हन्त मण्डितपुत्र! जीवः सदा समितं न एजति न व्येजति न चलति न स्पन्दते न घटते न क्षुभ्यति न उदीरयति । तं तं भावं परिणमति। १४६. भन्ते! क्या जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता तथा उस-उस भाव (परिणाम) में परिणत नहीं होता है? हां, मण्डितपुत्र! जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता तथा उस-उस भाव (परिणाम) में परिणत नहीं होता है। १४७. जावं च णं भंते! से जीवे नो एयति यावच्च भदन्त! स जीवः न एजति न नो वेयति नो चलति नो फंदइ नो घट्टइ व्येजति न चलति न स्पन्दते न घटते न नो खुन्मइ नो उदीरइ नो तं तं भावं क्षुभ्यति न उदीरयति न तं तं भावं परिणमति, परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते ___तावच्च तस्य जीवस्य अन्ते अन्तक्रिया अंतकिरिया भवइ? भवति? हंता मंडिअपुत्ता! जावं च णं से जीवे नो हन्त मण्डितपुत्र! यावच्च स जीवः न एजति एयति नो वेयति नो चलति नो फंदइ नो न व्येजति न चलति न स्पन्दते न घटते घट्टइ नो खुब्भइ नो उदीरइ नो तं तं भावं न क्षुभ्यति न उदीरयति न तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते परिणमति, तावच्च तस्य जीवस्य अन्ते अंतकिरिया भवइ ॥ अन्तक्रिया भवति। १४७. भन्ते! क्या जब वह जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्ये जन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता तथा उस-उस भाव में परिणत नहीं होता, तब उस जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया हो जाती है? हां, मण्डितपुत्र! जब वह जीव एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता है तथा उस-उस भाव में परिणत नहीं होता, तब उस जीव के अन्तिम समय में अन्तक्रिया हो जाती है। १४८. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-जावं तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-यावच्च १४८. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा च णं से जीवे नो एयति नो वेयति नो स जीवः न एजति न व्येजति न चलति है-जब वह जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलति नो फंदइ नो घट्टइ नो खुब्भइ नो न स्पन्दते न घटते न क्षुभ्यति न उदीरयति चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को उदीरइ नो तं तं भावं परिणमइ, तावं च न तं तं भावं परिणमति, तावच्च तस्य प्राप्त नहीं होता तथा उस-उस भाव (परिणाम) णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवइ? जीवस्य अन्ते अन्तक्रिया भवति? में परिणत नहीं होता, तब उस जीव के अन्तिम समय में अन्तक्रिया हो जाती है? मंडिअपुत्ता! जावं च णं से जीवे सया मण्डितपुत्र! यावच्च स जीवः सदा समितं । मण्डितपुत्र! जब वह जीव सदा प्रतिक्षण एजन, समितं नो एयति नो वेयति नो चलति न एजति न व्येजति न चलति न स्पन्दते व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा नो फंदइ नो घट्टइ नो खुब्भइ नो उदीरइ न घटते न क्षुभ्यति न उदीरयति न तं को प्राप्त नहीं होता तथा उस-उस भाव में नो तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं से तं भावं परिणमति, तावच्च स जीवः-नो परिणत नहीं होता, तब वह जीव न आरम्भ जीवे-नो आरभइ नो सारभइ नो समारभइ, 'आरभते नो संरभते नो समारभते, नो करता है, न संरम्भ करता है, न समारंभ करता नो आरंभे बट्टइ नो सारंभे वट्टइ नो आरम्भे वर्तते नो संरम्भे वर्तते नो समारम्भे है। वह न आरम्भ में प्रवृत्त होता है, न संरम्भ समारंभे वट्टइ, अणारभमाणे असारभमाणे वर्तते, अनारमभाणः असंरभमाणः असमार- में प्रवृत्त होता है, न समारम्भ में प्रवृत्त होता असमारभमाणे, आरंभे अवट्टमाणे सारंभे म्भमाणः, आरम्भेऽवर्तमानः संरम्भेऽवर्तमानः है। वह आरम्भ नहीं करता हुआ, संरम्भ नहीं अवट्टमाणे समारंभे अवट्टमाणे बहूणं पाणाणं समारम्भेऽवर्तमानः बहूनां प्राणानां भूतानां करता हुआ, समारम्भ नहीं करता हुआ, आरम्भ भूयाणं जीवाणं सत्ताणं अदुक्खावणयाए जीवानां सत्त्वानाम् अदुक्खापनाय अशोका- में अवर्तमान, संरम्भ में अवर्तमान, समारम्भ में असोयावणयाए अजूरावणयाए अतिप्पा- पनाय अजूरापनाय 'अतिप्पावणयाए अपिट्टा- अवर्तमान होकर अनेक प्राण, भूत, जीव और वणयाए अपिट्टावणयाए अपरियावणसाए वणयाए' अपरितापनाय वर्तते। सत्त्वों को दुःखी नहीं बनाता, शोकाकुल नहीं वट्टइ। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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