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भगवई
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से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जायतेयसि पविखज्जा से नूर्ण मडिअपुत्ता से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्यामेव मसमसाविज्ज हंता मसमसाविन्जइ ।
से जहानामए केइ पुरिसे तत्तख अपकवत्तंसि उदयबिंदु पविखवेज्जा से नूणं मंडिअपुत्ता से उदयबिंदू तत्तति अपकवल्लसि पक्विवेत्ते समाणे खिप्यामेव विद्धसमागच्छइ ? हंता विद्धसमागच्छर ।
से जहानामए हरए सिया पुष्णे पुण्णष्यमाणे बोलमाणे बोसट्टमाणे समभरघडत्ताए विद्वति । अहे णं केइ पुरिसे तंसि हरयसि एवं महं नावं सतासवं सतच्छिदं ओगाज से नूणं मंडिअपुत्ता! सा नावा तेहिं आसवदारेहिं आपूरमाणी- आपूरमाणी पुण्णा पुण्णप्पमाणा बोलट्टमाणा वोखट्टमाणा समभरघडत्ताए चिट्ठति ?
हंता चिट्ठति ।
अहे णं केइ पुरिसे तीसे नावाए सव्वओ समंता आसवदाराई पिहेड, पिठेत्ता नावा उचिणएणं उदयं उरिसचेन्जा से नूणं मंडिअपुत्ता! सा नावा तंसि उदयंसि उस्सित्तंसि समाणंसि खिप्पामेव उदाइ ? हंता उदाइ।
एवामेव मंडिअपुत्ता! अत्तत्ता-संवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स भासासमियस्स
सणास मयस्स आयाणभंडमत्तनिक्खे वणासमियरस उच्चार पासवण खेल-सिंघाण- जल्ल-पारिट्ठवणियासमियस्स मणसमियस्स वइसमयस्स कायसमियस्स मणगुत्तस्स वहगुत्तरस कायगुत्तस्स गुत्तस्स गुत्तिदियस्स गुत्तबं भयारिस्स, आउत्तं गच्छमाणस्स चिमाणस्स निसीयमाणस्स तुयमाणस्स आउत वत्थ पडिग्गह- कंबल पायपुंछणं गेहमाणस्स निक्खिवमाणस्स जाव चक्खुपम्हनिवायमवि वेमाया सुहुमा इरियावहिया किरिया कज्जइ-सा पढमसमयबद्धपुट्ठा, बितियसमयवेइया, ततियसमयनिज्जरिया । सा बद्धा पुट्ठा उदीरिया वेइया निज्जिण्णा
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तद् यथानाम कश्चित् पुरुषः शुष्कं तृणहस्तकं जाततेजसि प्रक्षिपेत् तन्नूनं मण्डितपुत्रः तत् शुष्कं तृणहस्तकं जाततेजसि प्रक्षिप्तं सत् क्षिप्रमेव मसमसायते?
हन्त मसमसायते ।
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तद्यथानाम कश्चित् पुरुषः तप्ते अयस्कपाले उदकविन्दु प्रक्षिपेत् तन्नूनं मण्डितपुत्र स उदकबिन्दुः तप्ते अवस्कपाले प्रक्षिप्तः सन् क्षिप्रमेव विध्वंसमागच्छति ?
हन्त विध्वंसमागच्छति।
तद् यथानाम हृदः स्वात् पूर्णः पूर्णप्रमाणः व्युपलोटन् विकसन्! समभरघटतया तिष्ठति । अथ कश्चित् पुरुषः तस्मिन् हदे एकां महतीं नावं शताखयां शतछिद्राम् अवगाहयेत् तन्नून मण्डितपुत्रः सा नीः तैः आस्रवद्वारैः आपूर्यमाणा आपूर्यमाणा पूर्णा पूर्णप्रमाणा व्युपलोटयन्ती विकसन्ती समभरघटतया तिष्ठति ?
हन्त तिष्ठति ।
तद् कश्चित् पुरुषः तस्याः नावः सर्वतः समन्ताद् आखवद्वाराणि पिदधाति, विधाय नासेचनकेन उदकम् उत्सिंचेत् तन्नून मण्डितपुत्र ! सा नौः तस्मिन् उदके उत्सिक्ते सति क्षिप्रमेव उद्याति? हन्त उद्याति ।
एवमेव मण्डितपुत्र ! आत्मात्मसंवृतस्य अनगारस्य ईयसमितस्य भाषासमितस्य एषणासमितस्य आदानभाण्डामात्रनिक्षेपणा समितस्य उच्चारप्रस्रवण क्ष्वेड- सिंघाण 'जल्ल'- परिष्ठापनिकासमितस्य मनः समितस्य वाक्समितस्य कायसमितस्य मनोगुप्तस्य वाग्गुप्तस्य कायगुप्तस्य गुप्तस्य गुप्तेन्द्रियस्य गुप्तब्रह्मचारिणः आयुक्तं गच्छतः तिष्ठतः (चेष्टतः) निषीदत त्याग्वर्तयतः आयुक्त वस्त्र-प्रतिग्रह कम्बल पादप्रीञ्छन गृहतः निक्षिपतः यावत् चक्षुःपक्ष्मनिपातमपि विमात्रा सूक्ष्मम् ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते - सा प्रथमसमयबद्धस्पृष्टा, द्वितीयसमयवेदिता, तृतीयसमयनिर्जरिता । सा बद्धा स्पृष्टा उदीरिता वेदिता निर्जीर्णा एष्यत्काले अकर्म
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श. ३ : उ. ३ : सू. १४८ करता, न जुराता (शरीर को जीर्ण अथवा खेदखिन्न नहीं करता) न रुलाता, न पीटता और न परिताप देता है।
जैसे कोई व्यक्ति सूखे तृणपूले को अग्नि में प्रक्षिप्त करे, तो क्या मण्डितपुत्र वह सूखा तृणपूला अग्नि में प्रक्षिप्त होने पर शीघ्र ही जल जाता है?
हां, वह शीघ्र ही जल जाता है। जैसे कोई पुरुष तपे हुए तवे पर जल-विन्दु गिराए, तो क्या मण्डितपुत्र ! वह जल-बिन्दु तपे हुये तवे पर गिरने पर शीघ्र ही विध्वंस को प्राप्त होता है ?
हां, वह विध्वंस को प्राप्त होता है। मण्डितपुत्र ! जैसे कोई ग्रह (नद) जल से भरा हुआ, परिपूर्ण, छलकता हुआ, हिलोरे लेता हुआ, चारों ओर से जल जलाकार हो रहा है। कोई व्यक्ति उस ग्रह में एक बहुत बड़ी, सैंकड़ों आश्रवों और सैंकड़ों छिद्रों वाली नौका को उतारे तो क्या मण्डितपुत्र वह नौका इन आधव-द्वारों के द्वारा जल से भरती हुई - भरती हुई परिपूर्ण हो जाती है, भर जाती है ? छलकती हुई, हिलोरें लेती हुई चारों ओर से जल जलाकार हो जाती है? हां, हो जाती है।
यदि कोई पुरुष उस नौका के आश्रवद्वारों को चारों ओर से रोक देता है। उन्हें रोक कर नौका के उत्सेचनक द्वारा जल को उलीच दे, तो क्या मण्डितपुत्र वह नौका उस पानी के बाहर निकल जाने पर शीघ्र ही ऊपर आ जाती है? हां आ जाती है।
मण्डितपुत्र ! इसी प्रकार जो अनगार आत्मना संवृत है, विवेकपूर्वक चलता है, विवेकपूर्वक बोलता है, विवेकपूर्वक आहार की एषणा करता है, विवेकपूर्वक वस्त्र पात्र आदि को लेता और रखता है, विवेकपूर्वक मलमूत्र, श्लेष्मा, नाक के मेल, शरीर के गाढ़े मैल का परिष्ठापन (विसर्जन) करता है, मन की संगत प्रवृत्ति करता है, वचन की संगत प्रवृत्ति करता है, शरीर की संगत प्रवृत्ति करता है, मन का निरोध करता है, वचन का निरोध करता है, शरीर का निरोध करता है, अपने आप को सुरक्षित रखता है, इन्द्रियों को सुरक्षित रखता है, ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखता है, उसके उपयोगपूर्वक चलते, खड़े रहते, बैठते और सोते तथा उपयोगपूर्वक वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद- प्रछन लेते-रखते समय और यावत् उन्मेष-निमेष
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