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________________ भगवई उत्ताणं ओलित्ताणं लित्ताणं पिहियाणं मुद्दियाणं लंछियाणं केवतियं कालं जोणी संचिट्ठइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुतं, उसेणं सत्त संवच्छराई। तेण परं जोणी पमिलायइ, तेण परं जोणी पविद्धंसर, तेण परं बीए अबीए भवति, तेण परं जोणीवोच्छेदे पण्णत्ते समणाउसो ! १. सूत्र १२९-१३१ प्रस्तुत आलापक के तीन सूत्रों में धान्य के हैं— प्रथम वर्ग खाद्यान्न का है; दूसरा वर्ग दलहन का है; का है। मञ्चागुप्तानां मालागुप्तानाम् अवलिप्तानां लिप्तानां पिहितानां मुद्रितानां लाञ्छितानां कियन्तं कालं योनिः सन्तिष्ठते ? गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण सप्त संव्वत्सराणि ततः परं योनिः प्रम्लायति, ततः परं योनिः प्रविध्वंसते, ततः परं बीजम् अवीजं भवति, ततः परं योनिव्युच्छेदः प्रज्ञप्तः आयुष्मन् श्रमण! २८५ प्रथम वर्ग के धान्यों में उत्पादक शक्ति तीन वर्ष तक, द्वितीय वर्ग धान्यों में पांच वर्ष तक और तृतीय वर्ग के धान्यों में सात वर्ष तक रहती है। यह उनकी उत्कृष्ट अवधि है। उनकी जघन्य अवधि अन्तर्मुहूर्त की है। उनकी उत्पादक शक्ति संरक्षण के प्रबंध पर निर्भर है। संरक्षण की व्यवस्था अच्छी होती है, तो वे धान्य अपनी उत्पादक शक्ति को वर्षों तक बनाए रख लेते हैं। उसके अभाव में उत्पादक शक्ति शीघ्र नष्ट हो जाती है। प्रस्तुत आलापक में धान्यों को संरक्षित रखने की प्राचीन काल की पद्धति का उल्लेख किया गया है। धान्यों को संरक्षित रखने के लिए कोठे, पल्य, मञ्च और 'माल' बनाए जाते थे। उनमें धान्यों को डालकर उनके द्वार - मुख पर ढक्कन लगा गोबर आदि से लीप देते। उस पर चपड़ी लगा देते और उसे रेखांकित कर देते। १. शालिग्राम निघण्टु भूषणम्; भाग ७, ८, पृ. ६०४, धान्य वर्ग शालिधान्यं ब्रीहि धान्यं, शुक धान्यं तृतीयकम् । शिम्बीधान्यं क्षुद्रधान्यमित्युक्तं धान्यपंचकम् ॥ शालयोरक्त शाल्याद्या, व्रीहय: षष्टिकादयः एकलाई । कंगवादिकं क्षुद्रधान्यं, तृणधान्यं च तत्स्मृतम् ॥ २. जै. आ. व. को. पृ. २८५, २८६ । ३. वही, पृ. २६६ । ४. वही, पृ. ११६-११७/ भाष्य आयुर्वेद में पांच प्रकार के धान्य बतलाए गए हैं—शालि धान्य, ब्रीहि धान्य, शूक धान्य, शिम्बी और क्षुद्र धान्य । रक्त शालि आदि को शालि धान्य, साठी आदि को ब्रीहि धान्य, जौ आदि को शूक धान्य, मूंग आदि को शिम्बी धान्य और कंगुनी आदि धान्य को क्षुद्र धान्य अथवा धान्य कहते हैं। १ शब्द-विमर्श २ शाली (सालीण ) - शालिधान्य ( चावल का एक प्रकार) Jain Education International तीन वर्ग किये गये तीसरा वर्ग तिलहन श. ६ : उ.७ : सू.१२८-१३१ से लीप देने, ढक्कन से ढक देने, मिट्टी से मुद्रित कर देने और रेखाओं से लांछित कर देने पर उनकी योनि कितने काल तक रहती है ? " गीतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त उत्कर्षतः सात वर्ष उसके बाद योनि म्लान हो जाती है. प्रविष्वस्त हो जाती है, बीज अबीज हो जाता है, योनि का विच्छेद हो जाता है, आयुष्मन् श्रमण व्रीहि (वीहीणं ) - षष्टि धान्य ? गोधूम (गोधूमाणं) हूं यव (जवाणं ) — जौ ४ यवयव (जवजवाणं) – जई (जव का एक प्रकार) कल -मटर मसूर मसूर तिल-तिल मुग- मुंग मास - उड़द निप्फाव राजशिम्बी के बीज कुलत्थ — कुलथी आलिसंदग—चवला सतीण - मटर का एक भेद (वृत्ति में तूवर अर्थ भी किया है।) पलिमंग काला चना कुसुंभग-वरट्टिका धान्य (वृत्ति में कुसुम्भ अर्थ भी किया है।) कोद्दव कोदों कंगु — कंगुनी वर—चीना धान्य - राग - कंगु धान्य का एक प्रकार कोदूसग — कोदव की एक जाति सण सन सरिसव-सरसों मूलाबीय मूलक बीज For Private & Personal Use Only ५. जै. आ.व.को. पृ. २७२ - 'सतीन' ६. वही, पृ. २६१ 'वर' शब्दा ७. भ. वृ. ६ / १३०,१३१-- 'कल' त्ति कलाया वृत्तचनका इत्यन्ये, 'मसूर' त्ति मिलन: चनकिका इत्यन्ये, 'निप्फव' त्ति वल्ला: 'कुलत्थ' त्ति चवलिकाकाराः चिपिटिका भवन्ति, 'आलीसंदग' त्ति चवलकप्रकाराः चवलका एवान्ये, 'सईण' त्ति तुवरी, 'पलिमंधग' त्ति वृत्तचनकाः कालचनका इत्यन्ये, 'अयसि' त्ति भनी, 'कुसुंभंग' त्ति लट्टा, 'वरग' त्ति वरट्टो, 'रालग'त्ति कंगुविशेष:, 'कोदूसग' त्ति कोद्रवविशेष:, 'सण' त्ति त्वक्प्रधाननालो धान्यविशेष:, 'सरिसव' त्ति सिद्धार्थकाः, 'मूलगबीय' त्ति मूलकबीजानि शाकविशेषबीजानीत्यर्थ । www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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