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________________ श. ५ : ३.४ : सू. ६४-६७ पटह (पड ह )—ढोला भंभा (भंभा ) ढक्का ।' अथवा जयढक्का।' ढक्का का अर्थ है। होरंभ ( होरंभ ) महाढक्का।' भेरी (भेरी) नगाड़ा, डंका प्यालीनुमा मिट्टी या लकड़ी की कुण्डी को चमड़े से मढ़कर नगाड़ा बनता है। दो नुकीली लकड़ियों से नगाड़ा वादन किया जाता है। इसे नक्कारा भी कहते हैं।" एक मत के अनुसार नगाड़ा मध्यकालीन वाद्य था। जिसका आकार गोल था और वह समान आकार वाले दो चौड़े बड़े लोहे के कटोरों, करे या भैंस की खाल से मढ़े होते हैं, से बनता है। ' झल्लरी (झल्लरी) झाँझ' यह लोकवाद्य है। दो बड़े चक्राकार चपटे टुकड़े जिनके मध्य भाग में छोटा-सा गड्ढा रहता है, आपस में टकराकर बजाए जाते हैं। दक्षिण भारत में इसे 'झालरा' कहते हैं। झालरा मंजीरे के समान पीतल या धातु का बना होता है। इसका आकार गोल होता है। बीच में एक छिद्र होता है जिसमें धागा या तांत पिरोकर दोनों हाथों के सहारे बजाते हैं। एक मत के अनुसार आठ से सोलह अंगुल व्यास तक के धातु के गोल टुकड़े झाँझ कहलाते हैं। इनके मध्य में डोरी निकालकर तथा उस पर कपड़ा ६५. छउमत्थे णं भंते! मणूसे किं आरगयाई साई सुइ ? पारगयाई सद्दाई सुणेइ ? ६६. जहा णं भंते! छउमत्वे मणूसे आरगयाई साई सुइ, नो पारगयाई सद्दाई सुणेइ, तहा णं केवली कि आरगयाई सदाई सुणे? पारगयाई सद्दाई सुणेइ ? गोयमा ! केवली णं आरगयं वा, पारगयं वा सव्वदूर - मूलमणंतियं सदं जाणइ पास ॥ ६७. से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ – केवली णं आरमयं वा, पारगयं वा सव्वदूरमूल मणतियं सदं जाणइ पास? गोयमा ! आरगयाई सद्दाई सुणेइ, नो पार- गौतम ! आरगतान् शब्दान् शृणोति, नो गाई सद्दाई सुणे || पारगतान् शब्दान् शृणोति । १५२ भगवई बांधकर हाथ से पकड़ने योग्य कर लेते हैं और फिर एक-एक हाथ में एकएक टुकड़ा पकड़कर दोनों को एक दूसरे से आघात से बजाते हैं, जिससे मनचाही झंकार निकाली जाती है। प्रायः देवी-देवताओं की स्तुति के समय झांझ-मंजीरों का वादन किया जाता है। " ७. भारतीय संगीत में वाद्यवृन्द, पृ. १६७ । ८. भ. वृ. ५ / ६४ 'झल्लरि' ति वलयाकारो वाद्यविशेषः । ९. भारतीय संगीत में वाद्यवृन्द, पृ. ८६, १६६ १. (क) भ.जो. २ / ७९/५ -पडह अर्थ ढोल विशेषानी। (ख) आप्टे. परह A kettle-drum, a wat-drum, drum, tabor. २. (क) भ. वृ. ५ / ६४ - भंभत्ति' ढक्का; Jain Education International छद्मस्थः भदन्त ! मुनष्यः किम् आरगतान् शब्दान् शृणोति ? पारगतान् शब्दान् शृणोति ? (ख) आप्टे ढक्का -double drum. ३. अभि. (स्वोपज्ञ टीका) ३/३७६ - भम्भा जयढक्कैव सारमस्य भम्भासारः । ४. राज. वृ. पृ. १२६, जीवा.वृ. प. २६६ - होरंभा महाढक्का। ५. बृहत् हिन्दी कोश - 'भेरी' शब्दा ६. संगीत विशारद, पृ. ४३१। १२ दुन्दुभि (दुंदुभि ) एक प्रकार का बड़ा नगाड़ा | तत ....... शुषिर वाद्य चार प्रकार के होते हैं तत वीणा आदि वाद्यों के शब्द। वितत—पटह आदि के शब्द | घनकांस्य, ताल आदि के शब्द। शुषिर - बांसुरी आदि के शब्द। १३ तत्त्वार्थराजवार्तिक एवं तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की भाष्यानुसारिणी वृत्ति में उपर्युक्त तत और वितत की व्याख्या में परस्पर विपर्यास उपलब्ध होता है। १४ इन चारों शब्दों पर विस्तृत विवेचन के लिए ठाणं २/ २१२-२१९ तथा ४ / ६३२ के टिप्पण द्रष्टव्य हैं। यथा भदन्त ! छद्मस्थः मनुष्यः आरगतान् शब्दान् शृणोति, नो पारगतान् शब्दान् शृणोति तथा केवली किम् आरगतान् शब्दान् शृणोति पारगतान् शब्दान् शृणोति ? गौतम ! केवली आरगतं वा पारगतं वा, सर्वदूर मूलमनन्तिकं शब्दं जानाति पश्यति। तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - केवली आरगतं वा पारगतं वा सर्वदूर मूलमनन्तिकं शब्द जानाति पश्यति? " - ६५. 'भन्ते ! छद्मस्थ मनुष्य आरगत (इन्द्रिय-विषय की सीमा में आने वाले) शब्दों को सुनता है या पारगत (इन्द्रिय-विषय की सीमा से परवर्ती) शब्दों को सुनता है? गौतम ! वह आरगत शब्दों को सुनता है, पारगत शब्दों को नहीं सुनता। ६६. भन्ते ! जिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य आरगत शब्दों को सुनता है, पारगत शब्दों को नहीं सुनता, क्या उसी प्रकार केवल आरगत शब्दों को सुनता है अथवा पारगत शब्दों को सुनता है। गीतम! केवली आरगत अथवा पारगत, अतिदूर, अतिनिकट तथा मध्यवर्ती (न आसन्न न दूर) स्थित शब्द को जानता देखता है। ६७. भन्ते । यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैकेवल आरगत अथवा पारगत, अतिदूर, अतिनिकट तथा मध्यवर्ती (न आसन्न न दूर) स्थित शब्द को जानता देखता है? १०. संगीत विशारद, पृ. ४३२ ११. आप्टे दुन्दुभि - A sort of large kettle-drum. १२. (क) भ. वृ. ५ / ६४ - - ततानि वीणादिवाद्यानि तज्जनित शब्दा अपि तताः, एवमन्यदपि पदत्रयम्, नवरमयं विशेषस्ततादीनाम् - ततं वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकम्। घनं तु कांस्यातालादि, वंशादि शुषिरं मतम् ।। (ख) अभि. २ / २००, २०१– For Private & Personal Use Only ततं वीणा प्रभृतिकं, तालप्रभृतिकं घनम् । वंशादिकन्तु शुषिरं, आनद्धं मुरजादिकम्।। १३. (क) त. रा. वा. ५ / २४| (ख) त.सू.भा.वृ. ५ / २४/ www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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