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भगवई
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श.५ : उ.४ : सू.६४ तीनों इन्द्रियों के विषयों का स्पर्श और संवेदन दोनों होते हैं। इस आधार पर ८. आनुपूर्वी --- श्रवण-क्षेत्र में क्रम से आने वाले शब्द को सुना इन्द्रियां दो श्रेणियों में विभक्त हैं—प्रथम तीन (स्पर्शन, रसन, घ्राण) इन्द्रियां जा सकता है, अक्रम अथवा व्युत्क्रम से आने वाले शब्द को नहीं सुना जा भोगी और शेष दो (चक्षु और श्रोत्र) इन्द्रियां कामी हैं।'
सकता। सुनने की प्रक्रिया के मौलिक सूत्र ये हैं
छहों (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व, अधः) दिशाओं से १. स्पृष्ट-श्रवण-क्षेत्र में आत्म-प्रदेशों के साथ स्पृष्ट शब्द को आने वाले शब्द को सुना जा सकता है। इसका हेतु यह है कि लोक में त्रस सुना जा सकता है।
जीवों का एक नियत क्षेत्र है, उसे त्रसनाडी कहा जाता है। भाषक त्रस प्राणी २. अवगाढ़-आत्म-प्रदेशों के साथ एक क्षेत्र में अवस्थित होता है, उसका अस्तित्व नियमत: त्रसनाडी में मिलता है। त्रसनाडी में छहों शब्द को सुना जा सकता है।
दिशाओं से पुद्गल का ग्रहण किया जा सकता है। ३. अनन्तरावगाढ-आत्म-प्रदेशों के साथ अव्यवहित रूप में
शब्द-विमर्श अवस्थित शब्द को सुना जा सकता है।'
४. अणु और बादर दोनों प्रकार के शब्दों को सुना जा सकता है। काहला (खरमुही)-फौजी ढोला १९
यहाँ अणु और बादर सापेक्ष शब्द हैं। भाषा वर्गणा के पुद्गल वीणा (पिरिपिरिया)-सितार जैसा एक बाजा, जिसके दोनों चतु:स्पर्शी होते हैं, उन्हें नहीं सुना जा सकता। वक्ता के मुंह से निकलने वाले सिरों पर तुम्बे लगे रहते हैं।१२ शब्द का विस्फोट होता है। उसमें अन्य अनन्तप्रदेशी स्कन्ध मिलकर शब्द
दक्षिण भारतीय संगीत के वाद्यों में तंजोरी वीणा और तम्बूरा का को अष्टस्पर्शी बना देते हैं। वे अष्टस्पर्शी शब्द श्रोत्रेन्द्रिय के विषय बनते हैं। उल्लेख मिलता है। तंजोरी वीणा दक्षिणी कर्नाटक संगीत का एक प्रमुख तत यहां अणु का अर्थ सूक्ष्म-चतुःस्पर्शी नहीं है।' मलयगिरि ने सापेक्ष दष्टि वाद्य है। इस वाद्य में दो तुम्बे होते हैं। तम्बूरा दक्षिण में आधारस्वर देने के लिए को स्पष्ट करते हए अणु का अर्थ अल्पप्रदेशोपचय वाला और बादर का अर्थ प्रयोग में लाया जाता है। उत्तर भारत के तानपूरे से यह आकार में कुछ भिन्न प्रचुरप्रदेशोपचय वाला किया है।
होता है। तम्बूरा में लौकिक तुम्बे के स्थान पर लकड़ी का तुम्बा होता है। ५. अर्ववर्ती, अधोवर्ती और तिर्यग्वर्ती तीनों प्रकार के शब्द को तानपूरा को कहीं-कहीं तम्बूरा भी कहा जाता है। दो तुम्बों वाला तानपूरा सुना जा सकता है।
मद्रास के संग्रहालय में है।३ तानपूरे का तुम्बा नीचे गोल और आर कुछ ६. आदि, मध्य और पर्यवसान तीनों समयों में शब्द को सुना जा चपटा होता है। इसके अन्दर पोल होती है, जिसके कारण स्वर गुंजते हैं।१४ सकता है। भाषा-द्रव्य का ग्रहणोचित-काल उत्कर्षत: अन्तर्मुहूर्त है। उसके
पणव (पणव)--- भाण्डों का ढोल, छोटा ढोला५ प्रथम समय, मध्य समय और पर्यवसान समय में शब्द श्रवण का विषय बन मृदंग के समान पणव भी भरत का अति प्राचीन अवनद्ध वाद्य है। सकता है। शब्द की तरंगें होती हैं। उनका प्रवाह होता है। एक तरंग आरम्भ महर्षि भरत ने (नाट्य-शास्त्र में) मृदंग के बाद अवनद्ध वाद्यों में पणव को ही होती है और कुछ दर जा पूरी हो जाती है। फिर उसी प्रकार दसरी तरंग का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। पणव के आकार के सम्बन्ध में उन्होंने आरम्भ और अन्त होता है। शब्द की तरंगों के आदि, मध्य और पर्यवसान कहा है—सोलह अंगुल लम्बा, मध्य भाग भीतर की ओर दबा जिसका तीनों को पकड़ा जा सकता है।
विस्तार आठ अंगुल तथा जिसके दोनों मुख पांच अंगुल के हों, वह पणव है। ७. स्वविषय शब्द को सुना जा सकता है। पण्णवणा में श्रोत्रेन्द्रिय आधे अंगूठे के समान मोटाई वाला काठ होता है और भीतर का खोखला का विषय जघन्यत: अंगुल काअसंख्यातवां भाग एवं उत्कर्षत: बारह योजन भाग चार अंगुल के व्यास का होता है। पणव के दोनों मुख कोमल चमड़े से बतलाया गया है।
मंढ़े जाते हैं जिन्हें सूतली से कसा जाता है। सूतलियों का यह कसाव कुछ मलयगिरि नेस्वविषयकाअर्थ स्पष्ट, अवगाढऔर अनन्तरावगाढ ढीला रखा जाता था।६ किया है। किन्तु प्रथम अर्थ अधिक संगत है।
१. भ. ७/१३८, १३९१ २. प्रज्ञा, वृ.प. ३६३-स्पृष्टानि-आत्मप्रदेशसंस्पृष्टानि ३. वही, प. २६३ अवगाढानि-आत्मप्रदेशैः सह एक क्षेत्रावस्थितानि। ४. वही, प. २६३–अनन्तरावगाढानि-अव्यवधानेनावस्थितानि गृह्णाति न परम्परावगाढानि, किमुक्तं भवति? येष्वात्मप्रदेशेषु यानि भाषाद्रव्याण्यवगाढानि तैरात्मप्रदेशस्तान्येव गृह्णाति न त्वेकद्विव्यात्मप्रदेशव्यवहितानि।। ५. द्रष्टव्य भ. १/१९,२० का भाष्य । ६. प्रज्ञा. वृ.५ २६३-अणून्यपि - स्तोक प्रदेशान्यपि गृह्णाति बादराण्यपि - प्रभूतप्रदेशोपचितान्यपि, इहाणुत्वबादरत्वे तेषामेव भाषायोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्तोकबाहुल्यापेक्षया व्याख्याते। ७. वही, प. २६३–यानि भाषाद्रव्याण्यन्तर्मुहूर्त यावद् ग्रहणोचितानि तानि ग्रहणोचित्त- कालस्य उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणस्यादावपि प्रथमसमये, मध्येपि-द्वितीयादिष्वपि समयेषु,
पर्यवसानेपि—पर्यवसानसमयेपि गृह्णाति। ८. पण्ण, १५/४०॥ ९. प्रज्ञा. वृ.प. २६४-स्वविषयान् स्वगोचरान् स्पृष्टावगा नन्तराबगाढाख्यान् गृह्णाति। १०. वही, प. २६४-भाषको हि नियमात् त्रसनाइयां अन्यत्र त्रसकायासम्भवात् त्रसनाइयां च व्यवस्थितस्य नियमात् षड्दिगागतपुद्गलसम्भवात्। ११. भ.वृ. ५/६४-'खरमुहि' त्ति काहला। १२. (क) भ.वृ. ५/६४–'परिपिरिय' त्ति कोलिक पुटकावनध्दमुखो वाद्यविशेषः।
(ख) आ.व.प. ३८०-कोलियकपुटावनद्धा वंशादिनलिका। १३. भारतीय संगीत में वाद्यवृन्द, पृ.८३, ८४, १६३। १४. संगीत विशारद, पृ.२८४॥ १५. भ.वृ. ५/६४-'पणव' त्ति भाण्डपटहो लघुपटहो वा। १६. भारतीय संगीत में वाद्यवृन्द, पृ.७१
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