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________________ भगवई १५३ श.५: उ.४ : सू.६५-६९ है। गोयमा! केवलीणं पुरत्थिमे णं मियं पि गौतम ! केवली पौरस्त्ये मितमपि जानाति, गौतम ! केवली पूर्व में परिमित को भी जानता है, जाणइ, अमियं पि जाणइ । एवं दाहिणे णं, अमितमपि जानाति। एवं दक्षिणे, पश्चिमे, अपरिमित को भी जानता है। इसी प्रकार दक्षिण, पच्चत्थिमेणं, उत्तरे णं, उड्ढे, अहे मियं पि उत्तरे, ऊर्ध्वं, अधो मितमपि जानाति, पश्चिम, उत्तर, ऊर्व और अध: दिशाओं में परिमित जाणइ, अमियं पि जाणइ। अमितमपि जानाति।। को भी जानता है और अपरिमित को भी जानता है। सव्वं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली। सर्वं जानाति केवली, सर्वं पश्यति केवली। केवली सबको जानता है, केवली सबको देखता है। सव्वओ जाणइ केवली, सव्वओ पासइ सर्वतो जानाति केवली, सर्वतः पश्यति केवली सब ओर से जानता है, केवली सब ओर से केवली। केवली। देखता है। सव्वकालं जाणइ केवली, सव्वकालं पासइ सर्वकालं जानाति केवली, सर्वकालं पश्यति । केवली सब काल में जानता है, केवली सब काल में केवली। केवली। देखता है। सव्वभावे जाणइ केवली, सव्वभावे पासइ सर्वभावान् जानाति केवली, सर्वभावान् केवली सब भावों को जानता है, केवली सब भावों केवली। पश्यति केवली। को देखता है। अणंते नाणे केवलिस्स, अणंते दंसणे केव- अनन्तं ज्ञानं केवलिन:, अनन्तं दर्शनं केवली का ज्ञान अनन्त है, केवली का दर्शन अनन्त लिस्सा केवलिनः। निव्वुडे नाणे केवलिस्स, निव्वुडे दंसणे निवृतं ज्ञानं केवलिनः, निवृतं दर्शनं केव- केवली का ज्ञान निरावरण है, केवली का दर्शन केवलिस्स। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ लिनः। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-- निरावरण है। गौतम! इस अपेक्षा से कहा जा रहा –केवलीणं आरगयं वा, पारगयं वा सव्व- केवली आरगतं वा पारगतं वा सर्वदूर- है—केवली आरगत अथवा पारगत, अतिदूर, अतिदूर-मूलमणंतियं सद्दे जाणइ-पासइ । मूलमनन्तिकं शब्दं जानाति-पश्यति। निकट तथा मध्यवर्ती (न आसन्न न दूर) स्थित शब्द को जानता-देखता है। भाष्य १. सूत्र ६५-६७ पारगत--इन्द्रिय-विषय की सीमा से परे अवस्थित। प्रस्तुत प्रकरण में छद्मस्थ और केवली के बीच एक भेद-रेखा अति दूर, अति निकट तथा मध्यगत (न आसन्न न दूर) खींची गई है। छद्मस्थ शब्द को सुनता है और केवली शब्द को जानता है। (सव्वदूर-मूलमणंतियं)--केवली निकटवर्ती, दूरवर्ती और मध्यवर्ती सब केवली इन्द्रियों से नहीं जानता', वह आत्मा से जानता है। वह शब्द की शब्दों को जानता है। इस एक ही विषय को 'सर्वदूरमूल' और 'अनन्तिक'ध्वनि-तरंगों को साक्षात् जान लेता है, कान से सुनने की कोई अपेक्षा नहीं इन दो पदों द्वारा कहा गया है। वृत्तिकार ने सर्वदूरमूल और अनन्तिक की होती। इसी आधार पर यह स्थापना की गयी—केवली आरगत और पारगत व्याख्या दो प्रकार से की है— १. क्षेत्र की अपेक्षा से यहाँ सर्वदूर का अर्थ दोनों प्रकार के शब्दों को जानता है। छद्मस्थ शब्द को कान से सुनता है, है—अतिदूर, सर्वमूल का अर्थ है—अतिनिकट। अनन्तिक का अर्थ इसलिए वह आरगत शब्द को ही सुन सकता है, पारगत शब्द को नहीं। है-न अतिदूर, न अति निकट अर्थात् मध्यवर्ती। २. काल की अपेक्षा शब्द-विमर्श से यहाँ सर्वदूरमूल का अर्थ है—अनादि और अनन्तिक का अर्थ हैआरगत-इन्द्रिय-विषय की सीमा में आया हुआ। अनन्ता निर्वृत (निव्वुडे)- निरावरण। छउमत्थ-केवलीणं हास-पदं छद्मस्थ-केवलिनो: हास-पदम् छद्मस्थ और केवली का हास्य-पद ६८. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से हसेज्ज वा? छद्मस्थ: भदन्त ! मनुष्य: हसेद्वा? उत्सुकायेत ६८. 'भन्ते ! छद्मस्थ मनुष्य हंसता है? उत्सुक उस्सुयाएज्ज वा? वा? होता है? हंता हसेज्ज वा, उस्सुयाएज्ज वा।। हन्त ! हसेवा, उत्सुकायेत वा। हां, वह हंसता है, उत्सुक होता है। ६९. जहा णं भंते ! छउमत्थे मणुस्से हसेज्ज यथा भदन्त ! छद्मस्थ: मनुष्य: हसेद् वा, ६९. भन्ते ! जिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य हंसता है वा, उस्सुयाएज्ज वा, तहा णं केवली वि उत्सुकायेत वा, तथा केवली अपि हसेद् वा? और उत्सुक होता है, उस प्रकार केवली भी हसेज्ज वा? उस्सुयाएज्ज वा? उत्सुकायेत वा? हंसता है? उत्सुक होता है? १. भ.५/१०८ आसन्न तनिषेधादनन्तिकम् 'नजोऽल्पार्थत्वात्' नान्त्यन्तिकम् अदूरासन्नमित्यर्थः तद्योगाच्छब्दोपि २. भ.वृ. ५/६५----'सन्चदूरमूलमणतियं' ति सर्वथा दूरं विप्रकृष्टं मूलं च निकटं सर्वदूरमूलं च नन्तिकोऽतस्तम् अथवा सव्वंति अनेन 'सव्वओ समंता' इत्युपलक्षितम्। 'दूरमूलं' ति तद्योगाच्छब्दोऽपि सर्वदूरमूलोऽतस्ताम् अत्यर्थ दूरवर्त्तिनमत्यन्तासन्नं चेत्यर्थः अन्तिकम् - अनादिकमिति हृदयम्। 'अणंतियं' ति अनन्तिकमित्यर्थः। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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