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________________ श. ५ : उ. ४ : सू. ६८-७९ गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे ॥ ७०. से केणणं भंते! एवं वुच्चइ — जहा णं छउमत्वे मणुस्से हसेन्ज वा उस्सुवाएन्ज वा, नो णं तहा केवली हसेन्ज वा? उस्सुधाएज्ज वा? गोयमा । जं णं जीवा चरितमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं हसंति वा, उस्सुयायंति वा । सेणं केवलिस नत्थि । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वच्चइ – जहा णं छउमत्थे मणुस्से हसेज्ज वा, उस्सुयाएज्ज वा, नो णं तहा केवली हसेन्ज वा उस्सुदाएन्ज वा ॥ ७१. जीवे णं भंते ! हसमाणे वा, उस्सुयमाणे वा कई कम्मपगडीओ बंध? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा । एवं जाव वेमाणिए । पोहत्तएहिं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो ॥ १५४ गौतम ! नायमर्थः समर्थः । ....... Jain Education International तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते— यथा छद्मस्थः मनुष्यः हसेद् वा, उत्सुकायेत वा, नो तथा केवली हसेद् वा उत्सुकायेत वा? गौतम ! यज्जीवाश्चरित्रमोहनीयस्य कर्मणः उदयेन सन्ति वा उत्सुकायन्ते वा । तत्केवलिनो नास्ति। तत्तेनार्थेन गौतम । एवमुच्य ते — यथा छद्मस्थो मनुष्यो हसेद् वा, उत्सुकायेत वा, नो तथा केवली हसेद् वा, उत्सुकता १. सूत्र ६८-७१ चारित्र - मोहनीय की प्रकृतियों के दो वर्ग हैं— कषाय और नोकषाया नोकषाय का अर्थ है, ईषत् कषाय अथवा सहायक कषाय। नोकषाय का पहला प्रकार है— हास्या सिद्धसेनगणी ने हास्य के उत्प्रासन आदि अनेक प्रकार बतलाए - जीव: भदन्त ! हसन् वा, उत्सुकायमानो वा कति कर्मप्रकृतीर्बध्नाति ? गौतम ! सप्तविधबन्धको वा, अष्टविधबन्धको वा । एवं यावद् वैमानिकः । पृथक्त्वै जीवकेन्द्रियवर्जस्त्रिभंगः। तत्वार्धवार्तिक में भी उनका निर्देश है।' औत्सुक्य [रतिवेदनीय का एक प्रकार है। ' उत्तरज्झयणाणि का एक वक्तव्य है कि सुख का त्याग करने से अनुत्सुकता उत्पन्न होती है। उससे चारित्र मोह का क्षय होता है । " २. वह सात प्रकार की बंध करता है । भाष्य १. त.सू.भा.वृ. ६/१५ उत्प्रासनदीनाभिलाषिता कन्दर्पो पहासनबहुप्रलापहासशीलता हास्यवेदनीयस्याश्रवः । २. त. रा. वा. ६ / १४। भगवई गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ७०. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैजिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य हंसता है और उत्सुक होता है, उस प्रकार केवली न हंसता है और न उत्सुक होता है? गौतम ! जीव चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से हंसते हैं और उत्सुक होते हैं। वह केवली के नहीं होता। गौतम ! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है— जिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य हंसता और उत्सुक होता है, उस प्रकार केवली न हंसता है और न उत्सुक होता है। For Private & Personal Use Only ७१. भन्ते ! जीव हंसता हुआ और उत्सुक होता हुआ कितनी कर्म - प्रकृतियों का बंध करता है। गौतम ! वह सात प्रकार की कर्म-प्रकृतियों का बन्धन करता है अथवा आठ प्रकार की कर्मप्रकृतियों का बन्धन करता है।' इस प्रकार यावत् वैमानिक देवों तक यही वक्तव्यता है । पृथक्त्व सूत्रों (बहु-वचनान्तसूत्रों) में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर सर्वत्र तीन विकल्प होते हैं—सब जीव सात प्रकार की कर्म प्रकृतियों का बन्धन करते हैं। शेष सब जीव सात प्रकार की कर्म-प्रकृतियों का बन्धन करते हैं तथा एक जीव आठ प्रकार की कर्म प्रकृतियों का बन्धन करता है। कुछ जीव सात प्रकार की कर्म - प्रकृतियों का बन्धन करते हैं और कुछ जीव आठ प्रकार की कर्म प्रकृतियों का बन्धन करते हैं। बहुवचनान्त जीव और एकेन्द्रिय जीवों का केवल एक ही भंग होता है। वे सब सात प्रकार की और आठ प्रकार की कर्म प्रकृतियों का बन्धन करते हैं। सत्तविहबन्धए वा अट्ठविहबंधए वा कर्मबन्ध के ये दो विकल्प हैं। आयुष्य-कर्म का बन्ध जीवन में एक बार ही होता है, इसलिए सामान्यतः सप्तविध बन्धन यह विकल्प बनता है। आयुष्य-बन्ध के समय अष्टविध बन्धन का विकल्प बनता है। ३. पृथक्त्व सूत्रों पृथक्त्व सूत्र का अर्थ है बहुवचन वाला सूत्र । बहुवचनान्त सूत्रों में जीव पद और एकेन्द्रिय-पद (पृथ्वी, जल, अनि, वायु और वनस्पति के पांच दंडकों) को छोड़कर शेष उन्नीस दण्डकों में तीन भंग होते हैं। जीव पद और - ३. त. सू. भा. वृ. ६ / १५ – विचित्रपरिक्रीडनपरचित्तावर्जन बहुविधरमणपीडाभावदेशाद्यौत्सुक्यप्रीतीसञ्जननादीनि रतिवेदनीयस्य । ४. उत्तर. २९/३० | www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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