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________________ भगवई श.५: उ.४: सू.६८-७५ पृथ्विी आदि पदों में जीव बहुत होते हैं, इसलिए उनमें एक ही भंग उपलब्ध होता है—अनेक सप्त-विधबन्धक और अनेक अष्टविधबन्धक तीन भंग की योजना इस प्रकार है १. सब सप्तविधबन्धक २. अनेक सप्तविधबन्धक और एक अष्टविधबन्धक ३. अनेक सप्तविधबन्धक और अनेक अष्टविधबन्धक। पृथ्विी आदि एकेन्द्रिय जीवों में हास्य और औत्सुक्य का अस्तित्व होता है। वृत्तिकार के अनुसार ये पूर्वजन्म के परिणाम हैं। एकेन्द्रिय जीवों के वर्तमान जीवन में भी हास्य और औत्सुक्य अव्यक्त रूप में उपलब्ध हो सकते हैं। छउमत्थ-केवलीणं निद्दा-पदं ७२. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से निहाएज वा? पयलाएज वा? हंता निदाएज वा, पयलाएज वा ।। छद्मस्थ-केवलिनो: निद्रा-पदम् छद्मस्थ: भदन्त ! मनुष्य: निद्रायेत वा? प्रचलायेत वा ? हन्त ! निद्रायेत वा, प्रचलायेत वा॥ छद्मस्थ और केवली की निद्रा का पद ७२. 'भन्ते! क्या छद्मस्थ मनुष्य नींद लेता है? प्रचला लेता है? हां, वह नींद लेता है, प्रचला लेता है। ७३. जहाणं भंते ! छउमत्थे मणुस्से निदाएज्ज यथा भदन्त ! छद्मस्थ: मनुष्य: निद्रायेत वा, ७३. भंते ! जिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य नींद लेता है, वा, पयलाएज्ज वा, तहा णं केवली वि प्रचलायेत वा, तथा केवली अपि निद्रायेत प्रचला लेता है, उस प्रकार क्या केवली भी नींद और निद्दाएज्ज वा, पयलाएज्जा वा? वा? प्रचलायेत वा? प्रचला लेता है? गोयमा ! णो इणढे समढे॥ गौतम ! नायमर्थः समर्थः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। लेता? ७४. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ–जहाणं तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते——यथा ७४. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है जिस छउमत्थे मणुस्से निहाएज्ज वा, पयलाएज्ज छद्मस्थ: मनुष्य: निद्रायेत वा, प्रचलायेत प्रकार छद्मस्थ मनुष्य नींद लेता है, प्रचला लेता है, वा, नो णं तहा केवली निदाएज्ज वा? वा, नो तथा केवली निद्रायेत वा प्रचलायेत उस प्रकार केवली नींद नहीं लेता और प्रचला नहीं पयलाएज्ज वा? वा? गोयमा ! जंणं जीवा दरिसणावरणिज्जस्स गौतम ! यज्जीवा दर्शनावरणीयस्य कर्मणः गौतम ! जीव दर्शनावरणीय कर्म के उदय से नींद कम्मस्स उदएणं निद्दायंति वा, पयलायति उदयेन निद्रायन्ते वा, प्रचलायन्ते वा। तत् लेते हैं, प्रचला लेते हैं। वह (दर्शनावरणीय कर्म) वा। से णं केवलिस्स नत्थिा से तेणटेणं केवलिनो नास्ति। तत्तेनार्थेन गौतम ! एव- केवली के नहीं होता। गौतम ! इस अपेक्षा से यह गोयमा ! एवं वुच्चइ-जहा णं छउमत्थे मुच्यते—यथा छद्मस्थ: मनुष्य: निद्रायेत कहा जा रहा है-जिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य नींद मणुस्से निदाएज्जवा, पयलाएज्ज वा, नोणं वा, प्रचलायेत वा, नो तथा केवली निद्रायेत लेता है, प्रचला लेता है, उस प्रकार केवली नींद तहा केवली निदाएज्ज वा, पयलाएज वा। वा, प्रचलायेत वा। नहीं लेता, प्रचला नहीं लेता। ७५. जीवे णं भंते ! निद्दायमाणे वा, पयलाय- जीवो भदन्त ! निद्रायमाणो वा प्रचलायमानो ७५. भन्ते ! जीव नींद लेता हुआ, प्रचला लेता हुआ माणे वा कइ कम्मप्पगडीओ बंधइ? वा कति कर्मप्रकृतीर्बध्नाति? | कितनी कर्म-प्रकृतियों का बन्धन करता है? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए गौतम ! सप्तविधबन्धको वा अष्टविध- गौतम! वह सात प्रकार की कर्म-प्रकृतियों का बन्धन वा। एवं जाव वेमाणिए। पोहत्तिएसु जीवेगि- बन्धको वा । एवं यावद् वैमानिक:। पृथक्त्वेषु करता है अथवा आठ प्रकार की कर्म प्रकृतियों का दियवज्जो तियभंगो॥ जीवैकेन्द्रियवर्जस्त्रिभंगः। बन्धन करता है। इस प्रकार यावत् वैमानिक देवों तक ज्ञातव्य है। पृथक्त्व सूत्रों (बहुवचनान्त सूत्रों) में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर सर्वत्र तीन विकल्प (सू.७१ की तरह) होते हैं। भाष्य १. सूत्र.७२-७५ प्रस्तुत आलापक में नींद के आधार पर छद्मस्थ और केवली के बीच भेदरेखा खींची गई है। कर्मशास्त्रीय विवेचना के अनुसार नींद का कारण दर्शनावरणीय कर्म का उदय है। चरक के अनुसार जब मन क्लान्त १.भ.वृ. ५/७१-पृथिव्यादीनां हास: प्राग्भविक तत्परिणामादवसेय इति। २. चरक, सूत्रस्थान, २१/३५ (निष्क्रिय) और इन्द्रियां क्रिया-रहित होकर अपने-अपने विषयों से निवृत्त हो जाती है उस समय मनुष्य सोता है। दर्शनावरणीय कर्म का काम है चक्षु आदि इन्द्रिय-दर्शनों को आवृत्त करना। उनके आवृत्त होने पर नींद की स्थिति बनती है। निद्रा-विषयक कर्मशास्त्रीय सिद्धान्त और चरक के सिद्धान्त में यदा तु मनसि क्लान्ते कर्मात्मान: क्लमान्विताः। विषयेभ्यो निवर्तन्ते तदा स्वपिति मानवः।। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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