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श.३ : उ.६ : सू.२२६-२३०
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भगवई
२२६. से भंते! किं तहाभावं जाणइ-पासइ? अण्णहाभावं जाणइ-पासइ?
स भदन्त! किं तथाभावं जानाति-पश्यति? २२६. भन्ते! क्या वह यथार्थभाव को जानता-देखता अन्यथाभावं जानाति-पश्यति?
है? अन्यथा भाव (विपरीत-भाव) को जानता-देखता
गोयमा! नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अण्णहा- गौतम! नो तथाभावं जानाति-पश्यति, भावं जाणइ-पासइ ॥
अन्यथाभावं जानाति-पश्यति।
गौतम! वह यथार्थभाव को नहीं जानता-देखता है, अन्यथाभाव को जानता-देखता है।
२२७. से केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ-नो तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-नो तथाभावं तहाभावं जाणइ-पासइ? अण्णहाभावं जानाति-पश्यति? अन्यथाभावं जानाति- जाणइ-पासइ?
पश्यति? गोयमा! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं गौतम! तस्य एवं भवति-एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए समोहए, समोहणित्ता वाराणस्यां नगर्या समवहतः, समवहत्य राजगृहे रायगिहे नगरे रूवाइं जाणामि-पासामि। नगरे रूपाणि जानामि-पश्यामि। स एष सेस दंसण-विवच्चासे भवति। से तेणटेणं दर्शन-विपर्यासः भवति। तत्तेनार्थेन गौतम! गोयमा! एवं वुच्चइ-नो तहाभाव जाणइ- एवमुच्यते-नो तथाभावं जानाति-पश्यति, पासइ, अण्णहाभावं जाणइ-पासइ॥ अन्यथाभावं जानाति-पश्यति।
२२७. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को नहीं जानता-देखता है, अन्यथाभाव को जानता-देखता? गौतम! उसके इस प्रकार का दृष्टिकोण होता है-मैंने वाराणसी नगरी में वैक्रियसमुद्घात का प्रयोग किया है, प्रयोग कर मैं राजगृह नगर में विद्यमान रूपों को जानता-देखता हूँ। यह उसके दर्शन का विपर्यास है। गौतम! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को नहीं जानतादेखता, अन्यथाभाव को जानता-देखता है।
२२८. अणगारे णं भंते! भावियप्पा मायी अनगारः भदन्त ! भावितात्मा मायी मिथ्या- २२८. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार जो मायी, मिच्छदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए दृष्टिः वीर्यलब्धिकः वैक्रियलब्धिकः विभंग- मिथ्यादृष्टि है, वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और विभंगनाणलद्धीए वाणारसिं नगरिं, राजगिह ज्ञानलब्धिकः वाराणसी नगरी, राजगृहं च विभंगज्ञानलब्धि से सम्पन्न है, वह वाराणसी च नगरं, अंतरा एगं महं जणवयग्गं समो- नगरं, अन्तरा एक महद् जनपदाग्रं समवहतः, नगरी और राजगृह नगर के अन्तराल में एक हए, समोहणित्ता वाणारसिं नगरि रायगिह समवहत्य वाराणसी नगरी राजगृहं च नगरं महान् जनपदाग्र का निर्माण करने के लिए वैक्रिय च नगरं अंतरा एगं महं जणवयग्गं जाणति- अन्तरा एक महद् जनपदाग्रं जानाति-पश्यति? समुद्घात का प्रयोग करता है, प्रयोग कर -पासति?
वाराणसी नगरी, राजगृह नगर और उनके अन्तराल
में एक महान जनपदान को जानता-देखता है? हंता जाणति-पासति ॥ हन्त जानाति-पश्यति।
हां, जानता-देखता है।
२२६. से भंते! किं तहाभावं जाणइ-पासइ? अण्णहाभावं जाणइ-पासइ?
स भदन्त! किं तथाभावं जानाति-पश्यति? २२६. भन्ते! क्या वह यथार्थभाव को जानता-देखता अन्यथाभावं जानाति-पश्यति?
है? अन्यथा भाव (विपरीत-भाव) को जानता-देखता
गोयमा! नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अण्णहा- गौतम! नो तथाभावं जानाति-पश्यति, भावं जाणइ-पासइ ॥
अन्यथाभावं जानाति-पश्यति।
गौतम! वह यथार्थभाव को नहीं जानता-देखता है, अन्यथाभाव को जानता-देखता है।
२३०. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-नो तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-नो तथाभावं तहाभावं जाणइ-पासइ? अण्णहाभावं जानाति-पश्यति? अन्यथाभावं जानाति- जाणइ-पासइ?
पश्यति? गोयमा! तस्स खलु एवं भवति-एस खलु गौतम! तस्य एवं भवति-एषा खलु वाराणसी वाणारसी नगरी, एस खलु रायगिहे नगरे, नगरी, एतत् खलु राजगृहं नगरम्, एतत् एस खलु अंतरा एगे महं जणवयग्गे, नो खलु अन्तरा एक महद् जनपदाग्रं, नो खलु खलु एस महं वीरियलद्धी वेउव्वियलद्धी एषा मम वीर्यलब्धिः वैक्रियलब्धिः विभंगविभंगनाणलद्धी इड्डी जुती जसे बले वीरिए ज्ञानलब्धिः ऋद्धिः द्युतिः यशो बलं वीर्यं पुरिसक्कार-परक्कमे लद्धे पत्ते अभि- पुरुषकार-पराक्रमः लब्धः प्राप्तः अभिसमण्णागए। सेस दंसण-विवच्चासे भवति। समन्वागतः। स एष दर्शन-विपर्यासः भवति। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-नो तहाभावं तत्तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-नो तथाभावं
२३०. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को नहीं जानता-देखता, अन्यथाभाव को जानता-देखता है? गौतम! उसके इस प्रकार का दृष्टिकोण होता है-यह वाराणसी नगरी है, यह राजगृह नगर है। यह इन दोनों के अन्तराल में महान् जनपदाग्र है। यह मेरी वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और विभंगज्ञानलब्धि नहीं है। यह ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम मुझे लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) नहीं है। यह उसके दर्शन का विपर्यास है। गौतम!
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