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भगवई
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जाणइ-पासइ, अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ॥ जानाति-पश्यति, अन्यथाभावं जानाति
-पश्यति।
श.३: उ.६ :सू.२२२-२३० इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को नहीं जानता-देखता, अन्यथाभाव को जानता-देखता है।
भाष्य
१. सूत्र २२२-२३०
उमास्वाति के 'उन्मत्तवत्' इस वाक्यांश से प्रस्तुत विषय की प्रस्तुत प्रकरण में तीन आलापक हैं। इन तीनों में दर्शन-विपर्यय तुलना की जा सकती है। जैसे उन्मत्त व्यक्ति विपरीतग्राही होता है के तीन उदाहरण दिए गए हैं। रूप का निर्माण वैक्रिय-लब्धि से होता वह पत्थर के ढेले को सोना और सोने को पत्थर का ढेला मान लेता है। वीर्य-लब्धि उसकी सहायक है। प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ वीर्य-लब्धि है, वैसे ही मिथ्यादर्शन से उपहत मतिवाला व्यक्ति विषय का ग्रहण की अनिवार्यता है। पण्णवणा में कर्म-बंध के चार कारण निर्दिष्ट विपर्यय के साथ करता है। हैं-माया, लोभ, क्रोध और मान। ये चारों वीर्य का योग पाकर ही जयाचार्य ने विभंगज्ञान और दर्शन-विपर्यय इन दोनों की पृथक्ता कर्म-बंध के हेतु बनते हैं।'
का सटीक प्रतिपादन किया है। उनका तर्क है-अनुओगदाराई में विभंगज्ञान-लब्धि वैक्रिय-लब्धि में सहायक नहीं है। वैक्रिय-लब्धि विभंगज्ञान को ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होने वाला बतलाया है जो के साथ इसका प्रयोग ज्ञान की दृष्टि से किया गया है। यहां वीर्य-लब्धि ज्ञानावरण का क्षायोपशमिक भाव है। वह विपरीतग्राही नहीं हो सकता, और वैक्रिय-लब्धि मुख्य प्रतिपाद्य नहीं है। मुख्य प्रतिपाद्य है-दर्शन इसलिए जो दर्शन-विपर्यय है, वह मोहकर्म के उदय से निष्पन्न है।' का विपयर्य। उसका संबन्ध विभंगज्ञान से है। विभंगज्ञान अतीन्द्रिय उनका दूसरा तर्क है-दिशामूढ़ व्यक्ति पूर्व को पश्चिम जानता है। यह ज्ञान है। सम्यग्दृष्टि का रूपिद्रव्यग्राही अतीन्द्रियज्ञान अवधिज्ञान औदयिक भाव है, क्षायोपशमिक भाव नहीं। चक्षु में रोग है और वह कहलाता है और मिथ्यादृष्टि का रूपिद्रव्यग्राही ज्ञान विभंगज्ञान कहलाता दो चांद देखता है। इस द्विचन्द्र-दर्शन का हेतु चक्षु नहीं, किन्तु चक्षुगत है। विभंगज्ञान क्षायोपशमिक भाव है। विपर्यय मिथ्यात्वमोह के उदय । रोग है। रोग औदयिक भाव है और चक्षुज्ञान क्षायोपशमिक भाव है। से होता है।
इसी प्रकार विभंगज्ञान क्षायोपशमिक भाव है और दर्शन-विपर्यय औदायक वृत्तिकार ने दर्शन-विपर्यय का अर्थ अन्यदीय रूप में अन्यदीय भाव है, ये दोनों पृथक-पृथक हैं। विकल्प करना किया है, जैसे दिग्मूढ़ व्यक्ति दिशा-मोह के कारण पूर्व प्रथम आलापक का विषय है वैक्रिय-शक्ति द्वारा वाराणसी नगरी को पश्चिम मान लेता है।
का निर्माण, राजगृह में विद्यमान पदार्थों का विभंग द्वारा ज्ञान और जयाचार्य ने इस विषय का विस्तृत स्पष्टीकरण किया है। उनके दर्शन। इसमें दर्शन का विपर्यय इस प्रकार है-वह सोचता है मैंने अनुसार दर्शन-विपर्यय का सिद्धान्त प्रत्येक विभंगज्ञानी के साथ जुड़ा वैक्रिय शक्ति के द्वारा राजगृह नगर का निर्माण किया है और मैं वाराणसी हुआ नहीं है। उसका संबन्ध दिशामूढ़ व्यक्तितुल्य विभंगज्ञानी के में विद्यमान रूपों को जान-देख रहा हूं। साथ है
दूसरे आलापक में केवल नगर के निर्माण और पदार्थ-दर्शन
के नगर के नाम का परिवर्तन है। विभंग नाणी कोय, दिशामूढ जिम ते इस्यूं।
तीसरे आलापक में वह वैक्रिय-शक्ति से वाराणसी नगरी, राजगृह सगला नै नहिं कोय, एवं इहां जणाय 0 ॥' १. पण्ण. २३/६।
दर्शन विषे विचार विप्रयास आख्यो इहां। २. भ. वृ. ३/२२४-दर्शन विपर्यासो विपर्ययो भवति, अन्यदीय रूपाणामन्यदीयतया
पिण दर्शन अवधि उदार क्षय-उपशम नहि विपर्यय ॥४०॥ विकल्पितत्वात, दिग्मोहादिणपूर्वामपि पश्चिमां मन्यमानस्येति।
दर्शन विषेज ओर उदय भाव छ तेहनै। ३. भ. जो. ६८/३०।
विप्रयास जे घोर, ते विपरीतपणो अछै ॥४१॥ ४. त. सू. भा. वृ. १३३-सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ।
६. वही, ६८/५२-५७ भाष्य-यथोन्मत्तः कर्मोदयादुपहतेन्द्रियमतिर्विपरीतग्राही भवति । सोऽश्वं गोरित्यध्यवस्यति
दिशामूढ़ अवलोय, पूरब नै जाणे पछिम। गां चाश्व इति लोष्टं सुवर्णमिति, सुवर्ण लोष्ट इति लोष्टं च लोष्ट इति सवर्ण
उदय भाव ए जोय, पिण क्षयोपशम भाव नहीं ॥५२॥ सुवर्णमिति तस्यैवमविशेषेण लोष्टं सुवर्ण सुवर्ण लोष्टमिति विपरीतमध्यवस्यतो
है चक्षु मैं रोग, वे चंदा देखै प्रमुख। नियतमज्ञानमेव भवति । तद्वन्मिथ्यादर्शनोपहतेन्द्रियमतेर्मतिश्रुतावधयोऽप्यज्ञानं भवति।।
ते छै रोग प्रयोग, तिम विपरीतज जाणवो ॥५३॥ ५. भ. जो. ६८/३६-४१
चक्षु रोग मिट जाय, तठा पछे देखे तिको। बलि अनुयोगज द्वार ज्ञानावरणी-कर्म नां।
ए बिहुं जुदा कहाय, रोग अनै बल नेत्र ते ॥५४॥ क्षय-उपशम थी सार चिउं ज्ञान अज्ञान रू पूर्व श्रुत ॥३६॥
उदयभाव छै रोग चक्षु क्षयोपशम भाव छ। तिण कारण विपरीत, ते तो अन्य दीसे अछ।
ए बिहुँ जुदा प्रयोग, तिण विध ए पिण जाणवो ॥५५॥ क्षायोपशम भाव प्रतीत ते तो उज्जल जीव छै ॥३७॥
छे क्षयोपशम-भाव विभंग नो दर्शण अवधि। अवधिज्ञान नों सार बलि विभंग-अन्नाण नों।
विपरीतपणो कहाव, उदय-भाव कहिजे तसुं ॥५६॥ दर्शन अवधि उदार ते विपरीत हुवैज किम? ॥३८॥
ते माटे इहां एम, दाख्यो दर्शन नै विषे। मोह-कर्म उदय थी होय, उदय-भाव सावज तिको।
विपरीतपणुं ज तेम, पिण ए दोनूं जूजुआ ॥७॥ पिण क्षयोपशम थी जोय, विपरीतज छै किण विधै? ॥३६॥
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