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________________ छट्ठो उद्देसो : छठा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद भावियप्प-विकुव्वणा-पदं भावितात्म-विक्रिया-पदम् भावितात्मा-विक्रिया-पद २२२. अणगारे णं भंते! भावियप्पा मायी । अनगारः भदन्त! भावितात्मा मायी मिथ्या-- २२२. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार जो मायी, मिच्छदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए दृष्टिः वीर्यलब्धिकः वैक्रियलब्धिकः विभंग- मिथ्यादृष्टि है, वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और विभंगनाणलद्धीए वाणारसिं नगरि समोहए, ज्ञानलब्धिकः वाराणसी नगरी समवहतः, विभंगज्ञानलब्धि से सम्पन्न है, वह वाराणसी समोहणित्ता रायगिहे नगरे रूवाई जाणइ- समवहत्य राजगृहे नगरे रूपाणि जानाति- नगरी में क्रियसमुद्घात का प्रयोग करता है, पासइ? पश्यति? प्रयोग कर राजगृह नगर में विद्यमान रूपों को जानता-देखता है? हंता जाणइ-पासइ ॥ हन्त जानाति-पश्यति। हां, जानता-देखता है। २२३. से भंते! किं तहाभावं जाणइ-पासइ? अण्णहाभाव जाणइ-पासइ? स भदन्तः किं तथाभावं जानाति-पश्यति? २२३. भन्ते! क्या वह यथार्थभाव को जानता-देखता अन्यथाभावं जानाति-पश्यति? है? अन्यथा भाव (विपरीत-भाव) को जानता-देखता गोयमा! नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ॥ गौतम! नो तथाभावं जानाति-पश्यति, अन्यथाभावं जानाति-पश्यति। गौतम! वह यथार्थभाव को नहीं जानता-देखता है, अन्यथाभाव को जानता-देखता है। २२४. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-नो तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-नो तथाभावं तहाभावं जाणइ-पासइ? अण्णहाभावं जानाति-पश्यति? अन्यथाभावं जानाति- जाणइ-पासइ? पश्यति? गोयमा! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु गौतम! तस्य एवं भवति-एवं खलु अहं अहं रायगिहे नगरे समोहए, समोहणित्ता राजगृहे नगरे समवहतः, समवहत्य वाराणस्यां वाणारसीए नगरीए रूवाइं जाणामि-पासामि। नगर्या रूपाणि जानामि-पश्यामि। स एष सेस दंसण-विवच्चासे भवइ। से तेणटेणं दर्शन-विपर्यासः भवति। तत्तेनार्थेन गीतम! गोयमा! एवं वुच्चइ-नो तहाभाव जाणइ- एवमुच्यते-नो तथाभावं जानाति-पश्यति, पासइ, अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ॥ अन्यथाभावं जानाति-पश्यति। २२४. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को नहीं जानता-देखता, अन्यथाभाव को जानता-देखता है? गौतम! उसके इस प्रकार का दृष्टिकोण होता है-मैंने राजगृह नगर में वैक्रियसमुद्घात का प्रयोग किया है, प्रयोग कर मैं वाराणसी नगरी में विद्यमान रूपों को जानता-देखता हूं। यह उसके दर्शन का विपर्यास है। गौतम! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को नहीं जानतादेखता, अन्यथाभाव को जानता-देखता है। २२५. अणगारे णं भंते! भावियप्पा मायी अनगारः भदन्त! भावितात्मा मायी मिथ्या- २२५. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार जो मायी, मिच्छदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउब्वियलद्धीए दृष्टिः वीर्यलब्धिकः वैक्रियलब्धिकः विभंग- मिथ्यादृष्टि है, वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और विभंगनाणलद्धीए रायगिहे नगरे समोहए, ज्ञानलब्धिकः राजगृहे नगरे समवहतः, विभंगज्ञानलब्धि से सम्पन्न है, वह राजगृह नगर समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाई। समवहत्य वाराणस्यां नगयाँ रूपाणि जानाति- में वैक्रियसमुद्घात का प्रयोग करता है, प्रयोग जाणइ-पासइ? पश्यति? कर वाराणसी नगरी में विद्यमान रूपों को जानता-देखता है? हंता जाणइ-पासइ ॥ हन्त जानाति-पश्यति। हां, जानता-देखता है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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