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भगवई
श.३ : उ.१ : सू.१७-१६
वह शय्या देवदूष्य से ढकी हुई होती है। सिद्धसेन गणी के अनुसार प्रच्छदपट समस्या पर एक टिप्पणी की है। उसका आशय यह है कि यहां किसी कारणवश के ऊपर और देवदूष्य के नीचे इन दोनों के अन्तराल में वर्तमान वैक्रिय वर्गणा भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति का एकत्व विवक्षित है। इसमें कारण का के पुद्गलों को ग्रहण कर देव उत्पन्न होता है। वह प्रच्छदपट और देवदूष्य के स्पष्ट निर्देश नहीं है। मलयगिरी के अनुसार भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति पुद्गलों में अपने शरीर का निर्माण नहीं करता और न शुक्र और शोणित से । के रचनाकाल में अन्तर बहुत थोड़ा होता है। इसलिए उनके एकत्व की विवक्षा अपने शरीर का निर्माण करता है। उसके जन्म का हेतु 'उपपात सभा के की गई है। देवशयनीय क्षेत्र को प्राप्त होना' ही है।'
पर्याप्तियों की रचना उत्पत्ति के प्रथम समय में ही प्रारंभ हो जाती हैं
समाप्ति में काल का अन्तर होता है। आहार पर्याप्ति की रचना एक समय में ही २. अंगुल के असंख्यातवे भाग जितनी अवगाहना से
सम्पन्न हो जाती है। शेष पांच पर्याप्तियों में से प्रत्येक का समाप्ति काल अन्तर्मुहूर्त उत्पत्ति के समय भ्रूण की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग
है। आचार्य नेमिचन्द्र के अनुसार यह समाप्ति-काल का नियम औदारिक शरीर जितनी होती है। उत्कृष्ट अवगाहना भिन्न-भिन्न प्रकार की है। जघन्य अवगाहना
के लिए है। वैक्रिय शरीर के लिए समाप्ति का नियम भिन्न है। देवों के भाषा अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी ही होती है।
पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति की रचना एक साथ निष्पन्न होती है। इसलिए उनका
एकत्व विवक्षित है। ३. पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्ति-भाव को प्राप्त होता है
इस विषय पर शरीर-शास्त्रीय दृष्टि से समीक्षा करना अपेक्षित है।
स्वरयन्त्र और मानसिक क्रिया में परस्पर गहरा संबंध है। स्मृति, चिन्तन और पर्याप्ति का अर्थ है---जीवनीशक्ति का स्रोत। शरीर निर्माण के ।
कल्पना-मन की ये तीनों क्रियाएं भाषा के बिना नहीं हो सकती। मन के बिना प्रारंभ-काल में ही इनकी रचना हो जाती है। इनकी संख्या छह है--आहार भाषा हो सकती है, किंतु भाषा के बिना मन का कार्य-सम्पादन नहीं हो सकता। पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति,
इस आधार पर भाषा और मन के एकत्व की विवक्षा की जा सकती है। देवों के मनः पर्याप्ति। देव संज्ञी (समनस्क) होते हैं। संज्ञी जीव में छहों पर्याप्तियों का ।
वैक्रिय शरीर में भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति के केन्द्र अधिक संबद्ध हो नियम है, फिर भी यहां पांच पर्याप्ति की प्राप्ति का उल्लेख है। वृत्तिकार ने इस सकते हैं। इसलिए उनके एकत्व की विवक्षा की जा सकती है।
१८. जइ णं भंते ! तीसए देवे महिड्ढीए जाव यदि भदन्त ! तिष्यकः देवः महर्द्धिक यावद्
एवइयं च णं पभू विकुवित्तए, सक्कस्स णं एतावच्च प्रभुः विकर्तुं, शक्रस्य भदन्त ! भंते ! देविंदस्स देवरणो अवसेसा सामाणिया देवेन्द्रस्य देवराजस्य अवशेषाः सामानिकाः देवा केमहिड्ढीया? तहेव सव्वं जाव एस णं देवाः कियनमहर्द्धिकाः । तथैव सर्वं यावद् एष गोयमा ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो एग- गौतम! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य एकैकस्य मेगस्स सामाणियस्स देवस्स इमेयारूवे विसए सामानिकस्य देवस्य अयमेतद्रूपः दिषयः विसयमेते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए वि- विषयमात्रः उक्तः, नो चैव सम्प्राप्या व्यकार्षीद् कुविसु वा विकुव्वति वा विकुव्विस्सति वा विकरोति वा विकरिष्यति वा।
१८. भन्ते ! यदि तिष्यकदेव महान् ऋद्धि वाला यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो भन्ते! देवेन्द्र देवराज शक्र के शेष सामानिक देव कितनी महान् ऋद्धि वाले हैं? यह समग्र प्रकरण पूर्ववत् वक्तव्य है यावत् गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र के एक-एक सामानिक देव की विक्रिया-शक्ति का यह इतना विषय केवल विषय की दृष्टि से ही प्रतिपादित है। किसी भी देव ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा। तावत्रिंशक, लोकपाल और अग्रमहिषी की वक्तव्यता चमर की भांति ज्ञातव्य है। केवल इतना अन्तर है कि ये दो सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीपों को अपने रूपों से आकीर्ण कर सकते हैं। शेष वक्तव्यता उसी प्रकार है।
वा॥
तावत्तीसयलोगपालग्गमहिसणं जहेव चम- तावत्त्रिंशक-लोकपाल-अग्रमहिषीणां यथैव रस्स, नवरं-दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, चमरस्य, नवरं-द्वौ केवलकल्पो जम्बूद्वीपो अण्णं तं चेव ॥
द्वीपौ, अन्यत् तच्चैव।
१६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति दोच्चे गोयमे
जाव विहरइ ॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति द्वितीयः गौतमः यावद् विहरति।
१६. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। इस
प्रकार द्वितीय गौतम श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार करते हैं यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं।
१. त. सू. भा. वृ. पृ. १६०, सूत्र २/३२-उपपातक्षेत्रप्राप्तिमात्रनिमित्तं यज्जन्म । तदुपपातशब्देनोच्यते, नहि प्रच्छदपटदेवदूष्यपुद्गलानेवासौ शरीरीकरोति, नापि शुक्रादि- पुद्गलानाददान उत्पद्यते, तस्मात् प्रतिविशिष्टक्षेत्रप्राप्तिरेवास्य जन्मनो निमित्तं भवति। २. भ. वृ. ३/१७--पर्याप्तिः-आहारशरीरादीनामभिनिर्वृत्तिः, सा चान्यत्र पोढोक्ता, इह तु पञ्चधा, भाषामनःपर्याप्त्योबहुश्रुताभिमतेन केनापि कारणेनैकत्वविवक्षणात् । ३. जीवा. वृ. पृ. २४२-भाषामनःपर्याप्त्योः समाप्तिकालान्तरस्य प्रायः शेषपर्याप्ति
कालान्तरापेक्षया स्तोकत्वादेकत्वेन विवक्षणम् । ४.प्र.सारो. प. २३२, गा. १३१७-१३१८
आहारसरीरिदिय पज्जत्ती आणपाण भासमणे। चत्तारि पंच छप्पिय एगिदिय-विगल-सन्नीणं ॥ पढमा समय पमाणा सेसा अंतोमुहुत्तिया य कमा। समगं पि हुंति नवरं पंचम छट्ठा य अमराणं ॥
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