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श.३ : उ.१ : सू.१७
ज्जसि देवदूतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइ भागमेत्तीए ओगाहणाए सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सामाणियदेवताए उबवण्णे ।
तणं तीस देवे अहुणोववण्णमेत्ते समाणे पंचविहाए पञ्चत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छद (तं जहा – आहारपज्जत्तीए, सरीरपज्जत्तीए, इंदियपज्जत्तीए, आणापाणुपज्जत्तीए, भासागणपतीए)
तए णं तं तीसयं देवं पंचविहार पज्जतीए पज्जत्तिभावं गयं समाणं सामाणियपरिसोबवण्णया देवा करयतपरिग्गाहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धाविंति, वद्धावित्ता एवं वयासी अहो णं देवाप्पिएहिं दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णा गए। जारिसिया णं देवागुप्पिएहिं दिव्या देविड्ढी दिव्वा देवज्जुई दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए, तारिसिया गं सक्केण वि देविदेण देवरगा दिव्या देविड्डी जाव अभिसमण्णागए। जारिसिया णं सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमण्णागए, तारिसिया णं देवाणुप्पिएहिं दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमण्णागाए। से णं भंते! तीसए देवे केमहिडडीए जाव केवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए ? गोवमा ! महिडीए जाव महाणुभागे से गं तत्थ सयस्स विमाणस्स, चउन्हें सामाणियसाहस्सीणं, चउन्हं अग्ममहिसीन सपरिवा राणं, तिन्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, सोलसण्डं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं वेमाणियाणं देवाणं, देवीण य जाव विहरइ । एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए । से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थे हत्थे गेहेज्जा, जहेव सक्करस तहेव जाव एस णं गोयमा ! तीसयस्स देवस्य अयमेयारूवे विसए विसवमेत्ते बुझए, गो चैव णं संपत्तीए विकु व्विसु वा विकुव्वति वा विकुव्विस्सति वा ॥
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देवदूष्यान्तरिते अंगुलस्य असंख्येयतमभागमात्रा अवगाहनया शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सामानिकदेवत्वेन उपपन्नः ।
ततः तिष्यकः देवः अधुनोपपन्नमात्रः सन् पञ्चविधाया पर्वाच्या पर्याप्तिभावं गच्छति (तद् यथा - आहारपर्याप्त्या, शरीरपर्याप्त्या, इन्द्रियपर्याप्त्या, आनापानपर्याप्त्या, भाषामनः- पर्याया
ततः तं तिष्यकं देवं पंचविधयाः पर्याप्तेः पर्याप्तिभावं गतं सन्तं सामानिकपरिषदुपपन्नकाः देवाः करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धापयन्ति, वर्धापयित्वा एवमवादीद् अहो देवानुप्रियैः दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवानुभावः लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः । यादृशी देवानुप्रियैः दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवानुभावः लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः तादृशी श मापि देवेन्द्रेण देवराजेन दिव्या देवर्जिः यावद् अभिमन्यागताः। याडुशी शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजेन दिव्या देवखिः यावद अभिमन्दागतः तादृशी देवानुप्रियैः दिव्या देवर्द्धिः यावद् अभिसमन्यागतः ।
स भदन्त ! तिष्यकः देवः कियन्महर्द्धिकः यावत् कियच् च प्रभुः विकर्तुम् ? गीतम! महर्दिकः यावत् महानुभागः स तत्र स्वस्य विमानस्य चतसृणां सामानिकसाहस्याः, चतसृणां अपमहिषीणां सपरिवा राणां, तिसृणां परिषदां, सप्तानाम् अनीकानां, सत्तानाम अनीकाधिपतीनां षोडश आत्मरक्ष देवसाहस्याः, अन्येषां च बहूनां वैमानिकानां देवानां देवीनां च यावद् विहरति । इयन्महर्द्धिकः यावद् एतावच् च प्रभुः विकर्तुम् । तद् यथानाम युवतिं युवा हरतेन हस्ते गृहीयात्, यथैव शक्रस्य तथैव यावद् एष गौतम ! तिष्यकस्य देवस्य अयम् एतद्रूपः विषयः विषयमात्रः उक्तः, नो चैव सम्प्राप्त्या व्य कार्षीद वा विकरोति वा विकरिष्यति था।
१. उपपात सभा के देवदूष्य से आच्छन्न देवशयनीय में जन्म के तीन प्रकार हैं- सम्मूर्च्छन, गर्भ और उपपात । देव उपपात
भाष्य
भगवई
विमान में उपपात सभा के देवदूष्य से आच्छन्न देवशयनीय में अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी अवगाहना से देवेन्द्र देवराज शक्र के सामानिक देव के रूप में उपपन्न हुआ।
तिष्यक देव तत्काल उपपन्न होते ही पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त होता है, जैसेआहार पर्याप्ति से, शरीर पर्याप्ति से, इन्द्रिय पर्याप्ति से, आनापान (श्वासोच्छ्वास) पर्याप्ति से और भाषा मन पर्याप्ति से ।
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सामानिक परिषद् में उपपन्न देव पांच पर्याप्तियों से पर्याप्तभाव को प्राप्त हुए उस तिष्यक देव को दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुटवाली दस नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर जय-विजय ध्वनि से वर्धापित करते हैं, वर्धापित कर इस प्रकार कहा - अहो ! आपने जैसी दिव्य देवर्जि दिव्य देवसुति और दिव्य देवानुभाव उपलब्ध किया है, प्राप्त किया है और वह भोग्य अवस्था में आया है, वैसी दिव्य देवर्द्धि देवेन्द्र देवराज शक्र ने उपलब्ध की है, प्राप्त की है यावत् वह भोग्य अवस्था में है। जैसी दिव्य देव देवेन्द्र देवराज शक ने उपलब्ध की है यावत् भोग्य अवस्था में आई है वैसी दिव्य देवर्द्धि आपने भी भलीभांति उपलब्ध की है यावत् वह भोग्य अवस्था में आई है।
भन्ते ! वह तिष्यक देव कितनी महान् ऋद्धि वाला यावत् कितनी विक्रिया करने में समर्थ है? गीतम! वह महान ऋद्धि वाला यावत् महान् सामर्थ्य वाला है। वह वहां पर अपने विमान, चार हजार सामानिक देव, चार सपरिवार पटरानियां तीन परिषद्, सात सेनाएं, सात सेनापति, सोलह हजार आत्मरक्षक देव और अन्य अनेक वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ रहता है। वह इतनी महान् ऋद्धि वाला है यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है । जैसे कोई युवक युवती का प्रगाढ़ता से हाथ पकड़ता है, जैसी शक की वक्तव्यता है वही वक्तव्यता यहां जाननी चाहिए। गौतम ! तिष्यक देव की विक्रिया शक्ति का यह इतना विषय केवल विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है । तिष्यक ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा।
जन्म से उत्पन्न होते हैं। उनके जन्म स्थान को उपपात सभा कहा जाता है। उस सभा में देवशय्या होती है। उस शय्या पर एक प्रच्छद-पट ( चादर) बिछा होता है।
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