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________________ भगवई १६. भंतेत्ति ! भगवं दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - जइ णं भंते! जो सिंदे जोइसराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं चणं पभू विकुव्वित्तए, सक्के णं भंते! देविंदे देवराया केमहिड्ढीए ? जाव केवतियं चणं पभू विकुव्वित्तए? गोयमा ! सक्के णं देविंदे देवराया महिड्ढीए जाव महाणुभागे । से णं बत्तीसार विमाणा - वाससय सहस्साणं, चउरासीय सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तावत्तीसगाणं, चउन्हं लोगपालाणं अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिन्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्हं चउरासीर्ण आवरक्खसाहस्सीगं, अण्गेसिं च जाव विहरइ । एमहिड्ढए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, एवं जहेब चमरस्स सहेब भाणियव्वं, नवरं - दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अवसेसं तं चेव । १. सूत्र १५ प्रस्तुत सूत्र में संक्षिप्त वक्तव्यता है। इनके आवासों और सामानिक देवों की संख्या पण्णवणा में विस्तार से उपलब्ध है।' एस णं गोयमा ! सक्करस देविंदस्स देवरण्णो इमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुबिसु वा विकुब्वति वा विकु व्विस्सति वा ॥ १७. जइ भंते! सक्के देविदे देवराया एमहि ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वत्तए, एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी तीसए नामं अणगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विणीए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पा भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई अट्ठ संवच्छराई सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासि याए लेहगाए अत्ताणं झूसेता, सहि भत्ताई अगसणाए देता आलोय पडिक्कं समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सयंसि विमाणंसि उववायसभाए देवसयणि १. पण २/४०-४८ १३ Jain Education International भाष्य भदन्त ! अयि ! भगवान् द्वितीयः गौतमः अग्निभूतिः अनगारः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीद् – यदि भदन्त ! ज्योतिरिन्द्रः ज्योतीराजः इयन्महर्द्धिकः यावद् एतावच् च प्रभुः विकर्तुं शक्रः भदन्त ! देवेन्द्रः देवराजः कियन्महर्द्धिकः? यावत् किमच्च प्रभुः विकर्तुम्? गौतम ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः महर्द्धिकः यावन् महानुभागः । स द्वाविंशतिः विमानावासशतसहस्राणां चतुरशीतिः सामानिकसाहस्त्र्याः, त्रयस्त्रिंशत् तावत्त्रिंशकानां चतुर्णां लोकपालानां, अष्टानां अग्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिसृणां परिषदां, सप्तानां अनीकानां, सप्तानां अनीकाधिपतीनां चतुर्णां चतुरशीतीनाम् आत्मरक्षसाहस्याः अन्येषाञ्च यावद् विहरति । इयन्महर्द्धिकः यावद् एतावच्च प्रभुः विकर्तुम् एवं यचैव धमरस्य तदेव भणितव्यं, नवरं - द्वौ केवलकल्पौ जम्बूद्वीपी द्वीपौ अवशेषं तच्चैव । एषः गौतम ! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अयमेव एतद्रूपः विषयः विषयमात्रः उक्तः, नो चैव सम्प्राप्या व्यकार्षीत् वा विकरोति वा विकरिष्यति वा ! यदि भदन्त ! शक देवेन्द्र देवराज इयन्महर्द्धिकः यावद् ! एतावच्च प्रभुः विकर्तुम्, एवं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासी तिष्यकः नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः प्रकृत्युपशान्तः प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभः मृदुमार्दवसम्पन्नः आलीनः विनीतः षष्टषष्टेन अनिक्षिप्तेन तपः कर्मणा आत्मानं भावयन् बहुप्रतिपूर्णान् अष्ट संवत्सरान् श्रामण्यपर्यायं प्राप्य मासिक्या संलेखनवा आत्मानं जोषित्वा पष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचित प्रतिमन्तः समा धिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मेल् स्वस्मिन् विमाने उपपातसभायाः देवशयनीये श. ३ : उ. १ : सू. १५-१७ For Private & Personal Use Only १६. भन्ते ! इस सम्बोधन से संबोधित कर द्वितीय गोतम भगवान् अग्निभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं, वन्दननमस्कार कर इस प्रकार बोले-भन्ते ! यदि ज्योतिरिन्द्र ज्योतीराज इतनी महान् ऋद्धि वाला यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो भन्ते ! देवेन्द्र देवराज शफ कितनी महान ऋद्धि वाला है यावत् कितनी विक्रिया करने में समर्थ है ? गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र महान् ऋद्धि वाला है। यावत् महान् सामर्थ्य वाला है। वह बत्तीस लाख विमानावास, चौरासी हजार सामानिक देव, तेतीस तावत्त्रिंशक देव, चार लोकपाल, आठ सपरिवार पटरानियां तीन परिषद्, सात सेनाएं, सात सेनापति, तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देव तथा अन्य देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ रहता है वह इतनी महान ऋद्धि वाला है यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है। इस प्रकार जैसे चमर की वक्तव्यता है वैसे ही शक्र की है, केवल इतना अन्तर है दो सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीपों को अपने रूपों से आकीर्ण कर सकता है, शेष वक्तव्यता उसी प्रकार है। गौतम देवेन्द्र देवराज शक की विक्रिया का यह इतना विषय केवल विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है, शक्र ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा। १७. भन्ते | यदि देवेन्द्र देवराज शक्र इतनी महान ऋद्धि वाला यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो भन्ते! तिष्यक देव केसी महान ऋद्धि वाला है? यह आपका अन्तेवासी तिष्यक नामक अनगार जो प्रकृति भद्र और प्रकृति से उपशान्त था, जिसकी प्रकृति में क्रोध, मान, माया और लोभ प्रतनु (पतले थे, जो मृदु-मार्दव से सम्पन्न, आत्मलीन और विनीत था। उसने अविच्छिन्न रूप से दो-दो दिन के उपवास से तपः- कर्म की साधना द्वारा आत्मा को भावित करते हुए पूरे साठ भक्तों को छेदन किया, वह आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में कालमास में काल को प्राप्त हो गया । वह सौधर्म कल्प में अपने www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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