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________________ श.३ : उ.१ : सू.१२-१५ १२ भगवई चेव निरवसेसं नेयव्वं, नवरं नाणत्तं जाणि- निरवशेषं नेतव्यं, नवरं-नानात्वं ज्ञातव्यं यव्वं भवणेहिं सामाणिएहि य ॥ भवनेषु सामानिकेषु च। शेष समूचा प्रकरण उसी प्रकार है। एक और अन्तर ज्ञातव्य है--भवन तीस लाख और सामानिक देवों की संख्या साठ लाख है। १३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति तच्चे गोयमे तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त! इति तृतीयः वायुभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदति गौतमः वायुभूतिः अनगारः श्रमणं भगवन्तं नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता णच्चासण्णे णाति- महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा दूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं नात्यासन्नं नातिदूरं शुश्रूषमाणः नमस्यन् पंजलियडे पज्जुवासइ ॥ अभिमुखः विनयेन कृतप्राञ्जलिः पर्युपासते। १३. "भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है" इस प्रकार तृतीय गौतम वायुभूति अनगार श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर न अति निकट न अति दूर शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धाञ्जलि होकर पर्युपासना करते हैं। १४. तते णं से दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अणगारे ततः सः द्वितीयः गौतमः अग्निभूतिः अनगारः १४. द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार श्रमण भगवान् समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, महावीर को वन्दना-नमस्कार करते हैं, वन्दननमंसित्ता एवं वयासी-जइ णं भंते ! बली वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीद्-यदि भदन्त! नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले---भन्ते! यदि वइरोयणिंदे वइरोयणराया एमहिड्ढीए जाव बलिः वैरोचनेन्द्रः वैरोचनराजः इयन्महर्द्धिकः वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि इतनी महान ऋद्धि वाला एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, धरणे णं यावद् एतावच्च प्रभुः विकर्तुं, धरणः भदन्त! है यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो भन्ते ! भंते ! नागकुमारिंदे नागकुमारराया,केमहि- नागकुमारेन्द्रः नागकुमारराजः कियन्महर्द्धिकः नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण कितनी महान् ड्ढीए? जाव केवइयं च णं पभू विकुवित्तए? यावत् कियच्च प्रभुः विकर्तुम् ? ऋद्धि वाला है यावत कितनी विक्रिया करने में समर्थ गोयमा! धरणे णं नागकुमारिंदे नागकुमार- गौतम! धरणः नागकुमारेन्द्रः नागकुमारराजः राया महिड्ढीए जाव महाणुभागे। से णं तत्थ महर्द्धिकः यावन् महानुभागः । स तत्र चोयालीसाए भवणावाससयसहस्साणं छह चत्वारिंशद् भवनावासशतसहस्राणां, षण्णां सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तावत्तीस- सामानिकसाहस्रयाः, त्रयस्त्रिंशत् तावत्गाणं, चउण्हं लोगपालाणं, छण्हं अग्गम- त्रिंशकानां, चतुर्णा लोकपालानां, षण्णाम् हिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अग्रमहिषीणां सपिरवाराणां, तिसृणां परिषदां, अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउव्वी- सप्तानाम् अनीकानाम्, सप्तानाम् अनीकाधिसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च जाव पतीना, चतुर्विंशतेः आत्मरक्षदेवसाहय्याः विहरइ। एवतियं च णं पभू विउवित्तए। से अन्येषाञ्च यावद् विहरति। एतावच् च प्रभुः जहानामए-जुवतिं जुवाणे जाव पभू केवल- विकर्तुम्। तद् यथानाम-युवतिं युवा यावत् कप्पं जंबुद्दीवं दीवं जाव तिरियं संखेज्जे दीव- प्रभुः केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं यावत् तिर्यक् समुद्दे बहूहिं नागकुमारीहिं जाव विकुब्बिस्सति संख्येयान् द्वीप-समुद्रान् बहुभिः नागकुमारीभिः वा॥ यावद् विकरिष्यति वा। गौतम ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण महान् ऋद्धि वाला यावत् महान् सामर्थ्य वाला है। वह वहां चौवालीस लाख भवनावास, छह हजार सामानिक देव, तेतीस तावत्त्रिंशक देव, चार लोकपाल, छह सपिरवार पटरानियां, तीन परिषद्, सात सेनाएं, सात सेनापति, चौबीस हजार आत्मरक्षक देव तथा अन्य अनेक देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ रहता है। वह इतनी विक्रिया करने में समर्थ है। जैसे कोई युवक युवती का प्रगाढ़ता से हाथ पकड़ता है यावत् सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप उसी प्रकार यावत् तिरछे लोक के संख्येय द्वीप समुद्रों को अनेक नागकुमार और नागकुमारियों से आकीर्ण करने में समर्थ है। यावत् क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा। सामानिक, तावत्रिंशक, लोकपाल और पटरानियां उनकी विक्रिया की वक्तव्यता चमर के सामानिक, तावत्रिंशक, लोकपाल और पटरानियों के समान है। केवल इतना अन्तर है-ये संख्येय द्वीप-समुद्रों को अपने रूपों से आकीर्ण करने में समर्थ है। सामाणिया तावत्तीस-लोगपालग्गमहिसीओ य सामानिकाः तावत्रिंशक-लोकपालाग्रमहिष्यतहेव जहा चमरस्स, नवरं-संखेज्जे दीव- श्च तथैव यथा चमरस्य, नवरं-संख्येयाः समुद्दे भाणियब्वे ॥ द्वीप-समुद्राः भणितव्याः। १५.एवं जाव थणियकुमारा, वाणमंतरा,जोईसिया एवं यावत् स्तनितकुमाराः, वानमन्तराः, ज्योति- वि, नवरं-दाहिणिल्ले सव्वे अग्गिभूई काः अपि, नवरं-दाक्षिणात्यान् सर्वान् अग्नि- पुच्छइ,उत्तरिल्ले सब्वे वायुभूई पुच्छइ ॥ भूतिः पृच्छति, औत्तराहान् सर्वान् वायुभूतिः पृच्छति।। १५. इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार, वानमन्तर और ज्योतिष्क देवों के संबंध में भी ज्ञातव्य है। विशेष बात यह है कि दक्षिण दिशा के सब देवों के संबंध में अग्निभूति प्रश्न करते हैं और उत्तर दिशा के सब देवों के संबंध में वायुभूति प्रश्न करते हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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