________________
आमुख
हमारा दृश्य जगत् मनुष्य और तिर्यञ्च (पशु-पक्षी आदि) तक सीमित है। इन्द्रिय, मन और बुद्धि-यह हमारे ज्ञान की सीमा है। इस ज्ञान की सीमा ने ज्ञेय को भी सीमित बना दिया है। देव, नरक और सूक्ष्म जीवों का जगत् हमारे ज्ञान से परोक्ष है, इसलिए उनके विषय की प्ररूपणा संशय, विकल्प और विस्मय उत्पन्न कर देती है।
आगम-साहित्य में देव, नरक और सूक्ष्म जीवों की चर्चा बहुलता से मिलती है। इसका हेतु है-प्रत्यक्ष दर्शन। प्रत्यक्षदर्शी आप्तपुरुष अपने अतीन्द्रिय ज्ञान (अवधिज्ञान अथवा केवलज्ञान) से अदृश्य जगत् का साक्षात्कार करते हैं और उसका प्रतिपादन करते हैं। वह प्रतिपादन हेतुगम्य नहीं होता,अतः हमारे लिये तर्क का विषय बनता है। परोक्ष दर्शन और प्रत्यक्ष दर्शन की समस्या को सामने रखकर आचार्य सिद्धसेन ने ज्ञेय वस्तु को दो भागों में विभक्त कर दिया-हेतुगम्य और अहेतुगम्य अथवा आगमगम्य। जो प्ररूपक हेतुगम्य सत्य की हेतुवाद के द्वारा और अहेतुगम्य पदार्थ की आगमवाद के द्वारा प्ररूपणा करता है, वह सम्यक् प्रज्ञापना करने वाला है।' तर्क और अतीन्द्रियज्ञान की सीमा को समझ लेने पर अन्धविश्वास और यथार्थ का अपलाप-इन दोनों से बचा जा सकता है।
अग्निभूति गौतम ने देवों की वैक्रिय-शक्ति के विषय में कुछ प्रश्न पूछे, भगवान महावीर ने उनके उत्तर दिए। अग्निभूति ने वैक्रिय शक्ति का विवरण वायुभूति के सामने रखा। वायुभूति ने उनके वक्तव्य पर विश्वास नहीं किया। वे भगवान् महावीर के पास गए। भगवान् ने अग्निभूति के वक्तव्य का अनुमोदन किया। तब वायुभूति के मन में विश्वास हो गया। इस घटना का निष्कर्ष यह है-अहेतुगम्य सत्य की व्याख्या का प्रामाणिक आधार प्रत्यक्षदर्शी आप्तपुरुष ही हो सकता है और वही परोक्षदर्शी के लिए विश्वसनीय बन सकता है।
भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों में प्रथम तीन गणधर-इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति गौतमगोत्रीय हैं। प्रस्तुत आगम में अधिकांश प्रश्न इन्द्रभूति गौतम के उपलब्ध होते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में यह उल्लेखनीय है कि अग्निभूति मुख्य प्रश्नकर्ता हैं तथा वायुभूति उनके संवाद में जुड़े हुए हैं।
प्रस्तुत शतक के तीसरे उद्देशक में छठे गणधर मंडितपुत्र का उल्लेख भी मिलता है।
आगमों में सामान्य रूप से गणधरों के संबंध में बहुत ही कम उल्लेख मिलता है। यद्यपि समवाओ में गणधरों के नाम, आयु आदि के विषय में कुछ स्फुट जानकारी उपलब्ध होती है, फिर भी जीवन के घटना-प्रसंगों का विशेष उल्लेख नहीं मिलता। इस दृष्टि से भगवती का प्रस्तुत शतक बहुत महत्त्वपूर्ण है। यहां चार गणधरों के जीवन्त घटना-प्रसंग उल्लिखित हैं। यह भी एक विशेष बात है कि तात्त्विक विषयों के संबंध में इन्द्रभूति गौतम को भांति अग्निभूति, वायुभूति और मण्डितपुत्र भी जिज्ञासाशील थे। यहां प्रस्तुत वार्तालाप में यह तथ्य सामने आता है कि इनकी परस्पर सभी विषयों में समान धारणाएं नहीं थीं। भगवान् से उत्तर पाने के बाद उनकी धारणा एकरूप बनीं। गणधरवाद में उपलब्ध गणधरों का परिचय तथा उनकी पूर्व मान्यताओं संबंधी विवेचन उत्तरकालिक हैं। भगवती के प्रस्तुत प्रसंगों से गणधरों के ऐतिहासिक व्यक्तित्व की संपुष्टि होती है।
प्रस्तुत शतक के दस उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक देवों की वैक्रिय शक्ति-विषयक जिज्ञासा से प्रारम्भ होता है। वैक्रिय शक्ति के द्वारा रूप-परिवर्तन और नानारूपों का निर्माण किया जा सकता है। वह शक्ति सभी देवों में होती है, पर सबमें समान रूप से विकसित नहीं होती। इसकी बहुत अच्छी जानकारी प्रथम उद्देशक में मिलती है।
तामली तापस का प्रकरण इस सत्य का साक्ष्य है कि जैन धर्म के सिद्धान्त आत्मवाद अथवा अध्यात्मवाद की पृष्ठभूमि पर विकसित हुए हैं, इसलिए वे सार्वभौम हैं, धर्म की सार्वभौमिकता के प्रतिपादक हैं। वे सांप्रदायिक संकीर्णता से प्रतिबद्ध नहीं हैं। तामली तापस अपने तपोबल से ईशानेन्द्र-द्वितीय कल्प ईशान का अधिपति बनता है। भविष्य में वह मुक्त होगा, यह स्वीकृति साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से नहीं हो सकती।
शक्र और ईशानेन्द्र के पारस्परिक संबंधों का बहुत ही आकर्षक और व्यावहारिक वर्णन प्रस्तुत शतक में मिलता है।'
देवलोक का मनुष्य-लोक के साथ प्रत्यक्ष संबंध परिलक्षित नहीं होता। उनमें परोक्ष संबंध है। इसका प्रमाण है-सनत्कुमार का प्रकरण। तीसरे स्वर्ग का अधिपति देवेन्द्र सनत्कुमार महावीर के धर्मशासन के प्रति आकृष्ट है। उसका हित चाहने वाला है। महावीर ने स्वयं इस रहस्यपूर्ण वार्ता का उल्लेख किया है।'
१. सम्मति ३/४३, ४५
दुविहो धम्मावाओ अहेउवाओ य हेउवाओ या तत्थ उ अहेउवाओ भवियाऽभवियादओ भावा।। जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ आगमे य आगमिओ। सो ससमयपण्णवओ सिद्धतविराहओ अन्नो।।
२. भ. ३/८, १०॥ ३. वही, ३/५४-७१। ४. वही, ३/७२,७३।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org