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________________ श.३ : आमुख भगवई भगवान् महावीर ने कहीं-कहीं अपने जीवन-प्रसंगों का उल्लेख किया है। भगवान् अपने साधनाकाल के ग्यारहवें वर्ष में थे, उस समय असुरेन्द्र चमर और देवेन्द्र शक्र का संघर्ष हुआ। चमर ने महावीर की शरण का उपयोग किया। यह बहुत ही रोमांचक घटनाक्रम है।' आधुनिक भौतिक विज्ञान के गति-सिद्धान्त (dynamics) के संदर्भ में शक्र, चमर और वज्र की सापेक्ष गति का अध्ययन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। वैक्रिय शक्ति का विकास देवों में जन्मना होता है, मनुष्यों में साधनाकृत होता है। भावितात्मा अनगार की वैक्रिय शक्ति के विविध पक्षों पर विमर्श किया गया है। इसका संबंध अध्यात्मविद्या अथवा रहस्यविद्या (Occult Sciences) से है। वर्तमान में भावितात्मा और वैक्रिय शक्ति के साधनासूत्र विस्मृत हो गए हैं । इन शक्ति-सूत्रों की संकलना भी भगवती का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। वायुकाय और बलाहक (बादल) में भी विक्रिया करने की शक्ति होती है। किंतु वह अल्पविकसित होती है। प्रस्तुत शतक में शक्र के चार लोकपालों का निरूपण एक विचित्र प्रश्न उपस्थित करता है। जैन दर्शन के अनुसार ईश्वर विश्व-व्यस्था का नियन्ता नहीं है। प्राकृतिक घटनाएं अपने सार्वभौम नियमों से घटित होती हैं। क्या लोकपाल उनके नियन्ता हैं? लोकपाल के विवरण को पढ़ने से यह धारणा बनती है कि कुछ प्राकृतिक घटनाओं का लोकपाल तथा उनके सहयोगी देवों से संबंध है। हर प्राकृतिक घटना में उनका हस्तक्षेप नहीं है, किंतु प्राकृतिक घटनाएं उनकी जानकारी में रहती हैं, यह स्पष्ट है। भवनपति देव, ज्योतिष्क देव और व्यन्तर देव उनके आज्ञाकारी हैं। वे लोकपालों के निर्देशानुसार प्राकृतिक घटनाओं में परिवर्तन भी करते हैं। ये देव इन प्राकृतिक घटनाओं में परिवर्तन करते हैं-इसका मूलपाठ में कोई उल्लेख नहीं है। किंतु अन्य आगमिक स्रोतों से यह पता चलता है कि अल्पवृष्टि, महावृष्टि, बादलों की गर्जना, बिजली का कौंधना-ये देवकृत भी होते हैं। प्राचीनकाल में प्राकृतिक आपदाओं और रोगों को देवकृत माना जाता था। उनकी शान्ति के लिए देवों को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया जाता, उनकी पूजा और आराधना की जाती। क्या प्रस्तुत प्रकरण इन अवधारणाओं का प्रतिपादक है अथवा दिव्यशक्ति का हमारी भूमि पर घटित होने वाली कुछ घटनाओं पर नियन्त्रण है-इस सच्चाई को स्वीकृति देता है? निष्कर्ष यह है कि प्राकृतिक घटनाओं और रोगों पर किसी भी दिव्यशक्ति का सर्वथा नियन्त्रण नहीं है, किंतु कुछ स्थितियों में देव परिवर्तन कर सकते हैं, इसका अस्वीकार भी नहीं है। हमारी भूमि, मनुष्य और दिव्यशक्ति-तीनों में परस्पर संबंध है। इस सिद्धान्त को समझने के लिए प्रस्तुत आलापक बहुत उपयोगी है। प्रस्तुत शतक के तीसरे उद्देशक में छठे गणधर मण्डितपुत्र का प्रकरण मोक्ष की प्रक्रिया को समझने के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। एक साधक किस प्रकार सप्रकम्प से अप्रकम्प होता है और क्रिया के अंतिम छोर तक पहुंच कर अक्रिय बन जाता है। इस प्रकरण के 'एयति वेयति' 'नो एयति नो वेयति'ये सूत्र उपनिषद् के 'तदेजति, तन्नेजति' वाक्यांशों की स्मृति दिला देते हैं। प्रस्तुत शतक रहस्यवादी और परामनोवैज्ञानिक के लिए पठनीय और मननीय है। इसमें अनुसंधान करने के अनेक अवकाश-क्षेत्र हैं। १.भ.३/१०५-११६ । २.वही, ३/१५४-१६३, १८६-१६२, १६४-२२० । ३. वही, ३/१६४-१८२। ४. वही, ३/२४७-२७० । ५. ठाणं, ३/३५६, ३६०,७१,७०। ६. ईशावास्योपनिषद्,५ तदेजति तन्नेजति तद् दूरे तदान्तिके। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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