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भगवई
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श.५: उ.९:सू.२५४-२५६
उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे? व्यतीत हुए हैं, व्यतीत होते हैं और व्यतीत होंगे?
विगच्छंति वा, विगच्छिस्सति वा? परित्ता मिष्यन्ति वा? परीतानि रात्रिंदिवानि उद- राइंदिया उप्पज्जिंसु वा, उप्पज्जंति वा, पादिषुः वा, उत्पद्यन्ते वा, उत्सत्स्यन्ते वा? उप्पज्जिस्संति वा? विगच्छिंसु वा, व्यगमन् वा, विगच्छन्ति वा, विगमिष्यन्ति विगच्छंति वा, विगच्छिस्संति वा? वा? हंता अज्जो ! असंखेज्जे लोए अणंता राई- हन्त आर्याः! असंख्येये लोके अनन्तानि दिया तं चेव॥
रात्रिंदिवानि तच्चैव।
हां, आर्यो ! इस असंख्येयप्रदेशात्मक लोक में अनन्त रात-दिन उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। व्यतीत हुए हैं, व्यतीत होते हैं और व्यतीत होंगे। इसी प्रकार परीत रात-दिन उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। व्यतीत हुए हैं, व्यतीत होते हैं और व्यतीत होंगे।
२५५. से केणटेणं जाव विगच्छिस्संति वा?
तत् केनार्थेन यावद् विगमिष्यन्ति वा?
से नूण भे अज्जो! पासेणं अरहया पुरिसा- तन् नूनं भवताम् आर्या: ! पार्बेन अर्हता दाणिएणं सासए लोए बुइए-अणादीए पुरुषादानीयेन शाश्वत: लोकः उक्त:अणवदणे परित्ते परिवुडे हेट्ठा विच्छिण्णे, अनादिक: अणवदग्गे' परीतः परिवृत: अध: मज्झे संखित्ते, उप्पिं विसाले, अहे पलि- विस्तीर्णः, मध्ये संक्षिप्तः, उपरि विशाल:, यंकसंठिए, मज्झे वरवइरविगहिए, उप्पिं अध: पल्यासंस्थित: मध्ये वरवज्रविग्रहिक: उद्धमुइंगाकारसंठिए। तेसिं च णं सासयंसि उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थितः। तस्मिंश्च लोगसि अणादियंसि अणवदगंसि परित्तंसि शाश्वते लोके अनादिके 'अणवदगंसि' परीते परिवुडंसि हेट्ठा विच्छिण्णंसि, मज्झे संखि- परिवृते अध: विस्तीर्णे, मध्ये संक्षिप्ते, उपरि तंसि, उप्पिं विसालंसि, अहे पलियंकसंठि- विशाले, अध: पल्यसंस्थिते, मध्ये वरयंसि, मझे वरवइरविग्गहियंसि, उप्पिं उद्ध- वज्रविग्रहिके, उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थिते मुइंगाकारसंठियंसि अणंता जीवघणा उप्प- अनन्ता: जीवघना: उत्पद्य-उत्पद्य निलीयन्ते, जित्ता-उप्पज्जित्ता निलीयंति, परित्ता जीव- परीता: जीवघना: उत्पद्य-उत्पद्य निलीयन्ते। घणा उप्पज्जित्ता-उप्पज्जित्ता निलीयंति।से स भूत: उत्पन्न: विगत: परिणत:, अजीवैः भूए उप्पण्णे विगए परिणए, अजीवेहिं लोक- लोक्यते-प्रलोक्यते, य: लोक्यते, सलोकः। कइ पलोक्कइ, जे लोक्कइ से लोए?
२५५. यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है—असंख्येय प्रदेशात्मक लोक में अनन्त रात-दिन उत्पन्न हुए हैं यावत् व्यतीत होंगे? हे आर्यो! आपके पूर्ववर्ती पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व ने लोक को शाश्वत कहा है. अनादि, अनन्त, परीत, अलोक से परिवृत, निम्नभाग में विस्तीर्ण मध्य में संक्षिप्त और ऊपर विशाल है। वह निम्न भाग में पर्यंक के आकारवाला, मध्य में उसकी आकृति श्रेष्ठ वज्र जैसी है और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाला है। उस शाश्वत, अनादि, अनन्त, परीत, अलोक से परिवृत, निम्न भाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, निम्न भाग में पर्यंक आकार वाले, मध्य में श्रेष्ठ वज्र और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाले लोक में अनन्त जीवघन उत्पन्न हो-होकर निलीन हो जाते हैं। परीत जीवघन उत्पन्न हो-होकर निलीन हो जाते हैं। वह लोक सद्भूत, उत्पन्न, विगत और परिणत है। अजीव-पुद्गल आदि के विविध परिणामों के द्वारा जिसका लोकन किया जाता है, प्रलोकन किया जाता है, वह लोक
हंता भगवं!
हन्त भगवन् ! से तेणटेणं अज्जो ! एवं वुच्चइ-असं- तत् तेनार्थेन आर्याः। एवमुच्यते--असंख्येये खेज्जे लोए अणंता राइंदिया तं चेव। लोके अनन्तानि रात्रिंदिवानि तच्चैव।
हां, भगवन्। आर्यो ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है—इस असंख्येयप्रदेशात्मक लोक में अनन्त रात-दिन उत्पन्न होते हैं—पूर्ण वक्तव्यता। उस समय से पापित्यीय स्थविर भगवान् श्रमण भगवान् महावीर को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के रूप में पहचानते हैं।
तप्पभिई च णं पासावच्चेज्जा थेरा भगवंतो तत्प्रभुति च ते पापित्यीयाः स्थविरा: समण भगवं महावीरं पच्चभिजाणंति सव्व- भगवन्त: श्रमणं भगवन्तं महावीरं प्रत्यभिण्णू सव्वदरिसी॥
जानन्ति सर्वज्ञः सर्वदर्शी।
२५६. तए ण ते थेरा भगवतो समण भगवं ततः ते स्थविरा: भगवन्तः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वदति नमसंति, वंदित्ता नमसित्ता महावीरं वंदन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा नम-
२५६. वे स्थविर भगवान् श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार कर इस
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