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श. ५:३९: सू. २५४-२५७
एवं वयासी— इच्छामिषं भंते! तुन्भं अंतिए चाउन्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरि - त्तए ।
अहासु देवाणुप्पिया ! मा पहिबंध
२५७. तरणं ते पासावच्चिज्जा घेरा भगवंतो चाउज्जमाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं स पडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरति जाव चरिमेहिं उस्सास - निस्सासेहिं सिद्धा बुद्धा मुक्का परिनिव्बुडा सव्वदुक्खप्पहीणा । अत्थेगतिया देवलो एसु उववण्णा ॥
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स्थित्वा एवमवादिषुः इच्छामः भगवन् ! युष्माकम् अन्तिके चातुर्यामाद् धर्मात् पञ्चमहाव्रतिकं सप्रतिक्रमणं धर्मम् उपसंपद्य विहर्तुम् । यथासुखं देवानुप्रियाः। मा प्रतिबन्धमा
ततः ते पाश्यपत्यीया: स्थविरा: भगवन्तः चातुर्यामाद् धर्मात् पञ्चमहाव्रतिकम् सप्रतिक्रमणं धर्मम् उपसम्पद्य विहरन्ति बावच् चरमैः उच्छवास - निःश्वासैः सिद्धाः 'बुद्धा' मुक्ताः परिनिर्वृताः सर्वदुखप्रहीणाः । अस्त्येकके देवलोकेषु उपपन्नाः। भाष्य
१. सूत्र २५४-२५७
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अर्हत् पार्श्व जैन परम्परा के २३ वे तीर्थंकर थे। उनका अस्तित्वकाल भगवान् महावीर से २५० वर्ष पूर्ववर्ती है। डॉ. याकोबी ने जैन आगमों और बौद्ध-पिटकों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर पार्श्व की ऐतिहासिकता को स्थापित किया। भगवान महावीर के माता-पिता पावपित्यिक (पार्श्व के अनुयायी थे। भगवान् महावीर के समय पार्श्वनाथ की परम्परा चल रही थी। पार्श्व के शिष्य भगवान् महावीर तथा गौतम के पास आते और तत्त्वचर्चा करते, ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं
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१. पाश्र्वपत्यीय कालासवेसियपुर महावीर के स्थिविरों के पास आते हैं और सामायिक आदि के विषय में तात्विक चर्चा करते हैं। अन्त में महावीर के शासन में दीक्षित हो जाते हैं।
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२. तुंगिया नगरी के श्रावकों ने पाश्र्वपत्नीय स्थविरों से तत्त्वचर्चा की स्थविरों ने जो उत्तर दिए, उनका महावीर ने समर्थन किया। वे स्थविर महावीर के शासन में दीक्षित हुए, इसका कोई उल्लेख नहीं है।
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३. पाश्र्वापत्यीय स्थविर भगवान् महावीर के पास आते हैं और परिमित लोक में अनन्त रात-दिन के विषय में प्रश्न पूछते हैं। भगवान् महावीर पार्श्वनाथ के सिद्धान्त को उद्धृत कर उनके प्रश्न का समाधान करते हैं। वे स्थविर महावीर की सर्वज्ञता के विषय में विश्वस्त होकर उनके शासन में दीक्षित होते हैं।
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४. पार्श्वपत्यीय गांगेय नामक अनगार वाणिज्यग्राम नामक नगर में आकर जीवों की उत्पत्ति और उद्वर्तन के विषय में प्रश्न पूछते हैं। महावीर उनका उत्तर देते हैं। इस प्रसंग में भी पार्श्व के लोक-विषयक सिद्धान्त को उद्धृत करते हैं। महावीर की सर्वज्ञता के प्रति विश्वस्त होकर गांगेय अनगार
१. Sacred Books of the East, vol. XLV, Introduction,
२. आ. चू. १५/२५/
३. भ. १ / ४२३-४३३॥
४. वही, २ / ९२-११०
भगवई
प्रकार बोले—भन्ते! हम आपके पास चातुर्याम धर्म से सप्रतिक्रमण पांच महाव्रत-रूप धर्म की उपसंपदा प्राप्त कर विहरण करना चाहते हैं।
देवानुप्रियो ! तुम्हे जैसा सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो।
२५७. वे पार्वापत्यीय स्थविर भगवान चातुर्याम धर्म सेसप्रतिक्रमण पांच महाव्रत रूप धर्म की उपसम्पदा प्राप्त कर विहरण कर रहे हैं। यावत् चरम उच्छ्वासनिःश्वास में सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिवृत और सब दुःखों से प्रहीण हुए। उनमें से कुछ एक स्थविर देवलोकों में उपपन्न हुए।
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उनके शासन में दीक्षित हो जाते हैं।
५. सूयगडो के नालंदीय अध्ययन के अनुसार पार्श्वोपत्यिक उदक पेढाल नालन्दा में गौतम के पास आते हैं और व्रत दिलाने की पद्धति के विषय में विस्तृत चर्चा करते हैं। चर्चा के पश्चात् वे महावीर के शासन में दीक्षित हो जाते हैं।
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६. उत्तरज्झयणाणि में पाश्र्वापत्यीय कुमार श्रमण केशी का उल्लेख है। वे श्रावस्ती में गौतम स्वामी के पास आते हैं। उन दोनों में एक लम्बा संवाद चलता है। अन्त में कुमार श्रमण केशी महावीर के शासन में दीक्षित होते हैं। इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के केवली हो जाने पर भी पार्श्व की परम्परा स्वतन्त्र रूप से चलती थी। उसी पार्श्व की परम्परा के स्थविर भगवान् महावीर के पास आए और उन्होंने पूछा-भन्ते । परिमित लोक में अनन्त रात-दिन उत्पन्न और विगत होते हैं अथवा परिमित रात-दिन उत्पन्न और विगत होते हैं।
भगवान महावीर ने दोनों विकल्पों को स्वीकार किया। यदि अनन्त हैं, तो परिमित कैसे? और यदि परिमित हैं, तो अनन्त कैसे ? इस विरोध का परिहार सापेक्ष दृष्टि से किया गया। इस जगत में दो प्रकार के जीव हैं—- साधारण शरोरी और प्रत्येक शरीरी ।
साधारण शरीरी की अवस्था में अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं और मरते हैं। प्रत्येक शरीरी की अवस्था में परिमित जीव उत्पन्न होते हैं और मरते हैं। काल जीव का एक स्थिति लक्षण वाला पर्याय है। साधारण शरीरी जीवों की अपेक्षा से अनन्त रात-दिन उत्पन्न होते हैं और बीत जाते हैं। प्रत्येक शरीरी जीवों की अपेक्षा से परिमित रात-दिन उत्पन्न होते हैं और बीत जाते हैं। इस प्रकार ये दोनों वक्तव्य परस्पर विरोधी नहीं, किन्तु सापेक्ष हैं। असंख्येय
५. वही, ५ / २५४-२५७/
६. वही, ९/७७-१३५ ।
७. सूर्य. २/७/८-३८ ।
८. उत्तर. अ. २३ ।
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