________________
भगवई
२२३
श.५ : उ.९ : सू.२५४-२५८ प्रदेश वाले लोक में अनन्त रात-दिन अथवा अनन्त जीवों का होना असम्भव गौणरूप में यह स्वत:सिद्ध है कि लोक अशाश्वत भी है। लोक शाश्वत है—इस नहीं है। आकाश में अवगाहन की क्षमता है और जीवों में परिणति की सूक्ष्मता निरूपण में लोक अशाश्वत है-यह गम्य है, इसलिए उक्त दोनों निरूपणों में है। अत: असंख्येय प्रदेशात्मक लोक में अनन्त जीवों का होना सम्भव है। कोई विरोध नहीं है।
भगवान् महावीर ने अर्हत् पार्श्व के सिद्धान्त को उद्धृत करते हुए अर्हत् पार्श्व और भगवान् महावीर के शासन में भेदरेखा खींचने असंख्येय प्रदेशात्मक लोक के स्वरूप का प्रतिपादन किया। वह लोक वाले दस कल्प निर्दिष्ट हैं। इनमें व्रत छठा और प्रतिक्रमण आठवां कल्प है। भूत-यथार्थ है। वह उत्पन्न होता है, विगत होता है और परिणत होता है। प्रस्तुत प्रकरण में इन्हीं दो कल्पों का उल्लेख है। पार्श्वनाथ की व्रत-व्यवस्था यहां उत्पत्ति और व्यय परिणति अथवा पर्यायान्तर की दृष्टि से विवक्षित हैं, में चातुर्याम का विधान था। भगवान् महावीर की व्रत-व्यवस्था में पांच महाव्रतों असत् की उत्पत्ति और सत् का विनाश विवक्षित नहीं है।
का विधान था। अर्हत् पार्श्व के शासन में प्रतिक्रमण करना अनिवार्य नहीं अजीव द्रव्य-पुद्गल की उत्पत्ति, व्यय और परिणति प्रत्यक्षतः था, कोई प्रमाद होता तो प्रतिक्रमण कर लिया जाता, अन्यथा नहीं। महावीर दिखाई दे रही है। जो दिखाई दे रहा है, वह लोक है। पुद्गल द्रव्य मूर्त है, के शासन में प्रतिक्रमण अनिवार्य था। इसलिए उसकी उत्पत्ति, व्यय और परिणति दिखाई दे रही है। शेष द्रव्य अमूर्त
शब्द-विमर्श है, इसलिए उनकी उत्पत्ति, व्यय और परिणति दिखाई नहीं दे रही है। इसलिए परीत-परिमित। लोक का निर्वचन प्रत्यक्ष-भूत पुद्गल द्रव्य के द्वारा किया गया है।
पुरुषादानीय जनता द्वारा आदेय, लोकमान्य। प्रस्तुत प्रकरण में अर्हत् पार्श्व ने लोक को शाश्वत कहा है, यह अगवदग्ग–अनन्त उल्लेख है। भगवान महावीर ने लोक को शाश्वत और अशाश्वत दोनों पर्यंक आकार वाले—पर्यंकासन अथवा पद्मासन में संस्थित, बतलाया है।
ऊपर संकड़ा, नीचे विस्तृत। इन दोनों निरूपणों में विवक्षा-भेद है, विरोधाभास नहीं है। वरवज्रविग्रहिक – वज्र जैसी शरीर रचना वाला , मध्य में द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से लोक शाश्वत है, पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से पतला। लोक अशाश्वत है। द्रव्यार्थिक नय मुख्य वृत्ति से अभेद को स्वीकार करता है। उर्ध्वमृदंग के आकार वाला – मल्लक सम्पुट के आकार वह भेद को अस्वीकार नहीं करता, किन्तु उसे गौण कर देता है। इसी प्रकार वाला। पर्यायार्थिक नय मुख्यवृत्ति से भेद को स्वीकार करता है। वह अभेद को जीवधन-अनन्त पर्याय समूह युक्त होने के कारण जीवके लिए अस्वीकार नहीं करता, किन्तु उसे गौण कर देता है।
जीवधन का प्रयोग किया गया है। द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से लोक को शाश्वत कहा गया है, वहां सद्भूत (भूत)- यथार्थी
देवलोय-पदं
देवलोक-पदम् २५८. कइविहा णं भंते ! देवलोगा पण्णत्ता? कतिविधा: भदन्त ! देवलोका: प्रज्ञप्ता:? गोयमा ! चउन्विहा देवलोगा पण्णत्ता, तं गौतम ! चतुर्विधा: देवलोका: प्रज्ञप्ता:, तद् जहा—भवणवासी-वाणमंतर-जोतिसिय- यथा—भवनवासि-वानमन्तर-ज्यौतिषिक-वेमाणियभेदेणं। भवणवासी दसविहा, -वैमानिकभेदेन। भवनवासिनः दशविधाः, वाणमंतरा अट्ठविहा, जोतिसिया पंचविहा, वानमन्तरा: अष्टविधाः, ज्यौतिषिका: वेमाणिया दुविहा।
पञ्चविधाः, वैमानिका: द्विविधा।
देवलोक-पद २५८. भन्ते ! देवलोक के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! देवलोक के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेभवनवासी, वानमन्तर, ज्योतिषिक और वैमानिक। भवनवासी के दश प्रकार, वानमन्तर के आठ प्रकार, ज्यौतिषिक के पांच प्रकार और वैमानिक के दो प्रकार
संगहणी गाहा
संग्रहणी गाथा
किमिदं रायगिह ति य, उज्जोए अंधयार-समए या
संग्रहणी गाथा किमिदं राजगृहमिति च, उद्द्योतोऽन्धकार-समयौ च।
यह राजगृह क्या है? उद्द्योत और अन्धकार कहां है? समय आदि को कौन जानता है? पापित्यीय
१. भ.वृ. ५/२५४–इहायमभिप्राय:---यद्यनन्तानि तानि तदा कथं परीत्तानि? इति विरोध:, अत्र हन्तेत्यागुतरं, अब चायमभिप्राय:-.-असंख्यातप्रदेशेऽपि लोकेऽनन्ता जीवा वर्तन्ते, तथाविधस्वरूपत्वाद्, एकत्राश्रये सहस्रादि संख्यप्रदीपप्रभा इव, ते चैकत्रैव समयादिके कालेऽनन्ता उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च, स च समयादि कालस्तेषु साधारण-शरीरावस्थायामनन्तेषु प्रत्येकशरीरावस्थायां च परीत्तेषु प्रत्येक वर्तते, तत् स्थितिलक्षणपर्यायरूपत्वात्तस्य, तथा च कालोऽनन्तः परीतश्च भवतीति, एवं चासंख्येयेऽपि लोके रात्रिन्दिवान्यनन्तानि परीत्तानि च कालत्रयेऽपि युज्यन्त इति । २.भ.९/२३३
३. द्रव्यानुयोगतर्कणा, ५/२,३--
द्रव्यार्थिकनयो मुख्यवृत्त्या भेदं वदस्त्रिषु । अन्योन्यमुपचारेण तेषु भेदं दिशत्यलम् ॥२॥ पर्यायार्थिक एवापि मुख्यवृत्त्यात्र भेदताम् ।
उपचारानुभूतिभ्यां मनुतेऽभेदतां त्रिषु ॥३॥ ४. ठाणं, ६/१०३ का टिप्पण। ५. भ. २/११८ का भाष्य।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org