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श. ५ उ. ९ सू. २४८-२५४
उस्सप्पिणी इ वा ? हंता अत्वि ||
२५२. से के?
गोयमा ! इहं तेसिं माणं, इहं तेसिं पमाणं, इहं चैव तेसिं एवं पण्णायते तं जहा समया इ वा जाव उस्सप्पिणी इ वा । से टेण्डेणं ॥
२५३. वाणमंतर - जोइस वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं ||
पासावच्चिज्ज -पदं
२५४. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासा वच्च्ज्जा थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं वयासी से नूणं भंते! असंखेन्जे लोए अनंता राहंदिया उपज्जि वा, उप्पल्यति उप्पन्निस्संति वा? विगच्छिं
२२०
उत्सर्पिणी इति वा?
हन्त अस्ति!
वा,
वा
तत् केनार्थेन?
गौतम ! इहं तेषां मानम्, इह तेषां प्रमाणम्, इचैव तेषां एवं प्रज्ञायते तद् यथा-समया इति वा यावद् उत्सर्पिणी इति वा । तत तेनार्थेन।
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१. सूत्र २४८ - २५३
इस विश्व में दो प्रकार के क्षेत्र हैं—समयक्षेत्र और समयातीत क्षेत्रा मनुष्य लोक जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और अर्धपुष्कर द्वीप वह अढाई द्विप समयक्षेत्र है। नरकलोक, देवलोक तथा अढाई द्वीप के आगे का क्षेत्र समयातीत क्षेत्र है। वहां समय का विभाग नहीं होता। अढाई द्वीप के बाहर सौरमण्डल गतिशील नहीं है— जहां सूर्य है, वहां सूर्य है, जहां चन्द्र है, वहां चन्द्र है, सब अवस्थित हैं। इसलिए वहां भी काल का विभाग नहीं है।
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काल का विभाग मनुष्य के लिए है। मनुष्य ही अपने काल-प्रमाण के आधार पर नरक गति, तिर्यञ्च और देवगति के आयुष्य आदि की कालमर्यादा का निर्धारण करता है।
वानमन्तर - ज्योतिष्क- वैमानिकानां यथा नैरयिकाणाम् ।
१. उत्तर. २८/१० - वत्तणा लक्खणो कालो ।
२. त. सू. ५ / २२ - वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्या
भाष्य
३. ठाणं २/३८७-३८९ - समयाति वा आवलियाति वा जीवाति या अजीवाति या पवच्चति । आणापाणूति वा थोविति वा जीवाति या अजीवाति या पवुच्चति। खणाति वा लवाति वा जीवाति या अजीवाति या पच्चति एवंमुहुत्ताति वा अहोरत्ताति वा पक्खाति वा मासाति वा उऊति वा अयणाति वा संवच्छराति वा जुगाति वा वासस्याति वा वाससहस्साइ वा वाससतसहस्साई वा वासकोडी वा पुब्बंगाति वा पुव्वाति वा तुडियंगाति वा तुडियाति वा अडडंगाति वा अडडाति अवगति वा अववाति वा हूहूअंगाति वा हूहूयाति वा उप्पलंगाति वा उप्पलाति वा पउमंगाति
पावपत्यीय पदम्
तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्वापत्ययाः स्थविरा: भगवन्तो यत्रैव श्रमण भगवान् महावीरः रात्रेच उपागच्छन्ति, उपागम्ब श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसामन्ते स्थित्वा एवमवादिषुः तन् नूनं भगवन् ! असंख्येये लोके अनन्तानि रात्रिंदिवानि उदपादिषुः वा, उत्पद्यन्ते वा, उत्पत्स्यन्ते वा? व्यगमनू वा, विगच्छन्ति वा विग
उत्सर्पिणी होते हैं? हां, ऐसा हो सकता है।
भगवई
२५२. यह किस अपेक्षा से?
गौतम ! समय आदि का मान और प्रमाण मनुष्यलोक में ही होता है। मनुष्य-लोक में ही समय यावत् उत्सर्पिणी होते हैं। यह इस अपेक्षा से
१
काल के दो प्रकार हैं-नैश्चयिक और व्यावहारिक। नैश्चयिक काल का लक्षण है वर्तना । उत्तरज्झयणाणि में काल का यही लक्षण निर्दिष्ट है। तत्त्वार्थसूत्र में काल के पांच लक्षण बतलाए गए हैं—वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्वा इनमें वर्तना और परिणाम का सम्बन्ध नैश्चयिक काल से तथा क्रिया, परत्व और अपरत्व का सम्बन्ध व्यावहारिक काल से है। ठाणं में व्यावहारिक काल जीव, अजीव दोनों रूप में वर्णित है।
३
२५३. धानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में नैरयिकों की भांति वक्तव्यता ।
अकलंक के अनुसार मनुष्य क्षेत्रवर्ती समय, आवलिका आदि व्यावहारिक काल के द्वारा ही सभी जीवों की कर्म स्थिति, भवस्थिति और काय स्थिति आदि का परिच्छेद होता है। संख्येय, असंख्येय और अनन्त इस काल-गणना का आधार भी व्यावहारिक काल है।'
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पाश्वचित्सीय पद
२५४. उस काल और उस समय पाश्र्वापत्यीय स्थविर भगवान् जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आते हैं। वहां आकर श्रमण भगवान् महावीर के न अति दूर न अति निकट स्थित होकर इस प्रकार बोले-भन्ते ! क्या इस असंख्येय प्रदेशात्मक लोक में अनन्त रात-दिन उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे? व्यतीत हुवे हैं, व्यतीत होते हैं और व्यतीत होगे ? परीत (परिमित) रात-दिन उत्पन्न हुए हैं,
वा पउमाति वा णलिणंगाति वा णलिणाति वा अत्थणिकुरंगाति वा अत्थणिकुराति वा अउअंगाति वा अति वाण अंगाति वा णउआति वा पतंगाति वा पउताति वा चूलियंगाति वा चूलियाति वा सीसपहेलियंगाति वा सीसपहेलियाति वा पतिओवमाति वा सागरोवमाति वा ओसप्पिणीति वा उस्सप्पिणीति वा जीवाति या अजीवाति या पवुच्चति ।
४. त. रा. वा. ५ / २२ – मनुष्यक्षेत्रसमुत्थेन ज्योतिर्गतिसमयावलिकादिना परिच्छिन्नेन क्रियाकलापेन कालवर्तनया कालाख्येन ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च प्राणिनां संख्येयाऽसंख्येयाऽनन्तानन्तकालगणनाप्रभेदेन कर्मभवकायस्थितिपरिच्छेदः सर्वत्र जघन्यमध्यमोत्कृष्टावस्थः क्रियते ।
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