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________________ भगवई २१९ श.५: उ.९: सू.२३७-२५१ निरूपण किया गया है। नरक में पुद्गलों का अशुभ परिणमन होने के कारण निरन्तर अन्धकार रहता है। वृत्तिकार के अनुसार पुद्गल की शुभ परिणति के निमित्तभूत सूर्य-किरण आदि प्रकाशक वस्तु का वहां अभाव है। पण्णवणा में उल्लेख है कि नरक-पृथ्वियों में सौरमण्डल नहीं होता। देवों के भवन और विमान पुद्गलों के शुभ परिणमन के कारण निरन्तर भास्वर रहते हैं। भवनों और विमानों के आकाश में सौरमण्डल नहीं होता। वे रत्नों के प्रभामण्डल से निरन्तर प्रभास्वर रहते हैं। वहां दिन और रात का विभाग नहीं है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीवों के निरन्तर अन्धकार रहता है। यह चक्षु-सापेक्ष अन्धकार का निरूपण है। इन जीवों को सूर्य-रश्मि का प्रकाश उपलब्ध होता है, किन्तु चक्षु-इन्द्रिय के अभाव में उन्हें निरन्तर अन्धकार का संवेदन होता है। चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय और मनुष्य में चक्षु-इन्द्रिय का विकास होता है। वे सूर्य के सम्पर्क में भी आते हैं, इसलिए उनमें उद्योत होता है। वे रात्रि का अनुभव करते हैं, इसलिए अन्धकार भी होता है। मणुस्सखेत्ते समयादि-पदं __मनुष्यक्षेत्रे समयादि-पदम् २४८. अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं तत्थगयाणं ___ अस्ति भदन्त ! नैरयिकाणां तत्रगतानाम् एवं एवं पण्णायए, तंजहा--समया इ वा, प्रज्ञायते, तद् यथा—समया इति वा, आ- आवलिया इ वा जाव ओसप्पिणी इ वा, वलिका इति वा यावद् अवसर्पिणी इति वा, उस्सप्पिणी इवा? उत्सर्पिणी इति वा? णो तिणढे सम8|| नायमर्थ: समर्थः। मनुष्य-क्षेत्र में समयादि-पद २४८.'भंते ! नैरयिक मनुष्य-लोक (समयक्षेत्र) के बाहर स्थित है, इसलिए उनके विषय में क्या ऐसा प्रज्ञापन हो सकता है, जैसे—समय, आवलिका यावत् अवसर्पिणी अथवा उत्सर्पिणी होते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। २४९. से केणतुणं भन्ते ! एवं दुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैर- नेरइयाणं तत्थगयाणं नो एवं पण्णायए, तं यिकाणां तत्रगतानां नो एवं प्रज्ञायते, तद् जहा--समया इ वा, आवलिया इ वा जाव यथा-समया इति वा, आवलिका इति वा, ओसप्पिणी इ वा, उस्सप्पिणी इ वा? यावद् अवसर्पिणी इति वा, उत्सर्पिणी इति वा? गोयमा ! इह तेसिं माणं, इहं तेसिं पमाणं, गौतम ! इह तेषां मानम्, इह तेषां प्रमाणं, इह इह तेसिं एवं पण्णायए, तं जहा–समया इ तेषाम् एवं प्रज्ञायते, तद् यथा—समया इति वा जाव उस्सप्पिणी इ वा। से तेणटेणं जाव वा यावद् उत्सर्पिणी इति वा। तत् तेनार्थेन नो एवं पण्णायए, तं जहा—समया इ वा यावन् नो एवं प्रज्ञायते, तद् यथा—समया जाव उस्सप्पिणी इ वा॥ इति वा यावद् उत्सर्पिणी इति वा। २४९. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नैरयिक मनुष्य-लोक के बाहर स्थित है, इसलिए उनके विषय में ऐसा प्रज्ञापन नहीं हो सकता, जैसे —समय, आवलिका यावत् अवसर्पिणी अथवा उत्सर्पिणी होते हैं? गौतम ! समय आदि का मान और पमाण मनुष्यलोक में होता है। मनुष्य-लोक में ही उनका इस प्रकार प्रज्ञापन हो सकता है, जैसे—समय यावत् उत्सर्पिणी होते हैं। इस अपेक्षा से यावत् नैरयिक मनुष्य-लोक के बाहर स्थित हैं, इसलिए उनके विषय में ऐसा प्रज्ञापन नहीं हो सकता, जैसेसमय यावत् उत्सर्पिणी होते हैं। २५०. एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण|| एवं यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम्। २५०. इसी प्रकार यावत् मनुष्य-लोक के बाहर स्थित पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों के विषय में ज्ञातव्य २५१. अत्थि णं भंते ! मणुस्साणं इहगयाणं एवं पण्णायते, तं जहा-समया इ वा जाव अस्ति भदन्त ! मनुष्याणाम् इहगतानाम् एवं प्रज्ञायते, तद् यथा—समया इति वा यावद् २५१. भन्ते ! मनुष्य-लोक में स्थित मनुष्यों के लिए क्या ऐसा प्रज्ञापन हो सकता है, जैसे—समय यावत् १. भ., ५/२४० तत्क्षेत्रस्य पुद्गलशुभतानिमित्तभूतरविकरादिप्रकाशकवस्तुवर्जितत्वात्। २. पण्ण, २/२० ते णं नरगा.... णिच्चंधयारतमसा ववगयगह-चंद-सूर-णक्खत्त-जोइसपहा। ३. (क) पण्ण, २/३० ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो समचउरंसा अहे पुक्खरकणियासंठाण- संठिता उक्किण्णंतरविउलगंभीर-खात-परिहा पागारट्टालय-कवाड-तोरणपडिदुवारदेसभागा जंत-सयग्धि-मुसल-मुसुंढिपरिवारिया अओज्झा सदाजता सदागुत्ता अडयालकोटगरइया अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किंकरामरदण्डोवरक्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिण्णपंचंगुलितला उवचियवंदणकलसा बंदणघडसुकततोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवद्वग्धारियमल्लदामकलावा पंचवण्णसरससुरहिमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिया कालागरु-पबरकुंदुरुक्क-तुरुक्क धूवमघमघेत-गंधुद्धयाभिरामा सुगन्ध-वर-गंध-गंधिया गंधवट्टिभूता अच्छरगण-संघ संविगिण्णा दिव्वतुडित-सद्दसंपणदिता सल्चरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पहा सस्सिरीया समिरीया सउज्जोया। (ख) पण्ण. २/४९—तेणं विमाणा सव्वरतणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला नियंका निक्कं कडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया। ४. भ.वृ. ५/२४३-रविकरादि संपर्के सत्यपि एषां चक्षुरिन्द्रियाभावेन दृश्यवस्तुनो दर्शनाभावाच्छुभपुद्गलकार्याकरणेनाशुभा: पुद्गला उच्यन्ते ततश्चैषामन्धकारमेवेति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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