________________
भगवई
१७६. तणं से कूणिए राया जेणेव मज्जणघरं तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता मज्ज्णघरं अणुप्पविसइ, अणुष्पविसित्ता हाए कयबलिकम्मे कयको उय-मंगलपायच्छिते सव्वालं कारविभूसिए सण्ण-ब-वम्मियकवए उपीलियारासणपट्टिए पिणगेदेज्य-विमल वरकद्धविंधपट्टे गहियाउहप्पहरणे सकोरेंट मल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमागेणं चउचामरबालवीजियंगे मंगलजयसहकवालोए जाव जेणेव उदाई हत्थराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उदाई हत्थिरायं दुरूढे ॥
१. बलिकर्म
प्रायश्चित
भ. २/६६ का भाष्य द्रष्टव्य है।
३८७
ततः स कोणिकः राजा यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य मज्जनगृहं अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य स्नातः कृतबलिकर्मा कृतकौतुक - मंगल- प्रायश्चित्तः सर्वालंकारविभूपितः सन्नर्मितवचः उत्पीडित शरासनपट्टिकः पिन्वेय- विमलवरबद्धचिह्नपट्टः गृहीतायुधप्रहरणः सकोरण्टमात्यदाम्ना छत्रेण धियमाणेन चतुश्चामरबालवीजिताङ्गः मङ्गलजयशब्दकृतालोकः यावद् यत्रैव उदायी हस्तिराजः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य उदायिनं हस्तिराजम् आरूढः ।
भाष्य
२. लोहकवच को धारण किया
सण्णद्धबद्धवम्मिय ( सन्नद्धबद्धवर्मित) में सन्नाह और वर्म दोनों कवच के पर्यायवाची नाम है। कवच पहने हुए योद्धा के लिए सन्नद्ध, बद्ध और वर्मित शब्दों का प्रयोग किया गया है।
Jain Education International
३. कलई पर चमड़े की पट्टी बांधी
उप्पीलियस रासणपट्टिए (उत्पीडितशरासनपट्टिका) में उत्पीडित का अर्थ है-खींचकर बांधी हुई शरासनपट्टिका का अर्थ है- धनुष की डोरी के आघात से रक्षा के लिए कलई पर बांधी जाने वाली चमड़े की पट्टी ।
४. गले का सुरक्षाकवच पहना
१७७. तए णं से कूणिए राया हारोत्थय-सुकय-रइयवच्छे जाव सेयवरचामराहिं उद्धु व्वमाणीहिं-उद्धुव्वमाणीहिं हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे महयामडचडनरविंदपरिक्खित्ते जेणेव महासिलाकंटए संगामे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महासिलाकंटगं संगामं ओयाए । पुरओ य से सक्के देविंदे देवराया एवं महं अभेज्जकवयं वइरपडिरूवगं विउब्वित्ता
चि । एवं खलु दो इंदा संगामं संगामेंति, तं जहा- देविंदे य, मणुइंदे य । एगहत्थिणा विणं पभू कृषिए राया दत्तए, एगहत्थिना विणं पभू कूणिए राया पराजिणित्तए ।
१. भ. वृ. ७/१७६ - ग्रेवेयकं ग्रीवाभरणां ।
वृत्तिकार ने वैवेयक का अर्थ ग्रीवाभरण किया है। किंतु यह अर्थ विमर्शनीय है।
श. ७: उ. ६: सू. १७६ - १७७
१७६. राजा कूणिक जहां मज्जनघर है, वहां आया, आ कर मज्जनघर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक. (तिलक आदि ) मंगल (दधि, अक्षत आदि) और प्रायश्चित्त' किया, सब अलंकारों से विभूषित हुआ, लोहकवच को धारण किया, कलई पर चमड़े की पट्टी बांधी, गले का सुरक्षाकवच पहना, विमलवर चिप बांधे, आयुध और प्रहरण लिए उसने कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र धारण किया, जिसके दोनों ओर दो-दो चामर डुलाए जा रहे थे । उसको देखते ही जनसमूह मंगल जय - निनाद करने लगा। यावत् जहां हस्तिराज उदाई था, वहां आया। आकर हस्तिराज उदाई पर आरूढ हो गया।
-
सव्वालंकारविमूसिए इस पाठ में अलंकृत होने का निर्देश है। इसके पश्चात् युद्ध के लिए सन्नद्ध होने का वर्णन है। प्रवेषक बाँधने और योद्धा के उपयुक्त चित्रपट्ट लगाने का पाठ संयुक्त है, अतः वेयकका प्रासंगिक अर्थ है - ' ग्रीवा की सुरक्षा का उपकरण'। जैसे सिर, पेट, जंघा, बाहु और अंगरक्षा के लिए पृथक-पृथक कवच पहने जाते थे वैसे ही ग्रीवा की रक्षा के लिए ग्रैवेयक नामक कवच पहना जाता होगा।
५. विमलवरचिह्नपट्ट... प्रहरण लिए
चिपट्ट (विधपट्टे) – योद्धा की पहचान कराने वाला विरूपट्ट गृहीतायुधप्रहरण (गहियाउहप्पहरणे) में गृहीत का अर्थ है - ग्रहण किया हुआ | आयुध अर्थात् अक्षेप्य शस्त्र प्रहरण का अर्थ है - प्रक्षेपास्त्र - बाण आदि ।
ततः स कूणिकः राजा हारोपस्तृत सुकृतरचितवक्षाः यावत् श्वेतवरचामराभिः उद्धूयमानाभिः - उद्धूयमानाभिः हय- गज-रथप्रवरयोधकलितया चतुरङ्गिण्या सेनया सार्धं संपरिवृतः महद्भटचटकरवृन्दपरिक्षिप्तः यत्रैव महाशिलाकण्टकः संग्रामः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य महाशिलाकण्टकं संग्रामं उपयातः । पुरतश्च स शक्रः देवेन्द्रः देवराजः एक महद् अभेद्यकवचं वज्रप्रतिरूपकं विकृत्य तिष्ठति । एवं खलु द्वौ इन्द्रौ संग्रामं संग्रामयतः, तद् यथा - देवेन्द्रश्च मनुजेन्द्रश्च । एकहस्तिनापि प्रभुः कृषिकः राजा जेतुम् एक हस्तिनापि प्रभुः कूणिकः राजा पराजेतुम् ।
For Private & Personal Use Only
१७७. राजा कूणिक का वक्षहार के आच्छादन' से सुशोभित हो रहा था यावत् वह डुलाए जा रहे श्वेतवर चामरों से युक्त, अश्व, गन, रथ और प्रवर योद्धा से युक्त चतुरंगिणी सेना से परिवृत, महान् सुभटों के सुविस्तृत वृन्द से घिरा हुआ जहां महाशिलाकंटक संग्राम की भूमि थी, वहां आया, आकर महाशिलाकंटक संग्राम में उतर गया। उसके पुरोभाग में देवेन्द्र देवराज शक्र. एक महान् वज्रतुल्य अभेद्य कवच का निर्माण कर उपस्थित हैं। इस प्रकार दो इन्द्र संग्राम कर रहे हैं, जैसे देवेन्द्र और मनुष्येन्द्र । राजा कूणिक एकहस्तिका ' से भी जीतने में समर्थ है। राजा कूणिक एकहस्तिका से भी दूसरों को पराजित करने में समर्थ है।
www.jainelibrary.org