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________________ श.७: उ.६ : सू. १७३-१७५ ३८६ भगवई लौकिक साहित्य में भी इस युद्ध का कोई उल्लेख नहीं है। मगध और वैशाली प्रदेश में इतनी बड़ी सेना का समावेश कैसे हुआ, यह भी एक विमर्शनीय प्रश्न है। महाशिलाकंटक संग्राम में चौरासी लाख तथा रथमुसल संग्राम में छियानवें लाख–कुल मिलाकर एक करोड़ अस्सी लाख मनुष्य मारे गये । तत्कालीन आबादी और प्रदेश की छोटी सीमा दोनों दृष्टियों से यह संख्या विस्मयकारक है। हो सकता है संख्या के संकेत किसी भिन्न गणना पद्धति से संबद्ध हो। प्रस्तुत दो युद्धों के वर्णन के निष्कर्ष ये हैं१. कोणिक का सामन्तवादी दृष्टिकोण युद्ध का हेतु बना। २. शरणागत की रक्षा को उस समय प्राथमिकता दी जाती थी। ३. युद्धकाल में भी विशेष मर्यादाओं का पालन किया जाता था। ४. जिते च लभ्यते लक्ष्मीः मृते चापि सुराङ्गना। क्षणभंगुरको देहः का चिन्ता मरणे रणे ॥ --इस अवधारणा का निरसन । १७४. तए णं से कोणिए राया महासिलाकंटगं ततः स कोणिकः राजा महाशिलाकंटकं संग्रा- १७४. महाशिलाकंटक संग्राम उपस्थित हो गया है-यह संगामं उवट्ठियं जाणित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दा- मम् उपस्थितं ज्ञात्वा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्द- जानकर राजा कोणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, वेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो यति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भोः बुलाकर कहा-देवानुप्रियो! शीघ्र ही हस्तिराज उदाई देवाणुप्पिया! उदाई हत्थिरायं पडिक्प्पेह, देवानुप्रियाः! उदायिनं हस्तिराज प्रतिकल्पयत, को सज्ज करो, अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धा से हय-गय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं हय-गज-रथ-प्रवरयोधकलितां चतुरङ्गिणी युक्त चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध करो, सन्नद्ध कर सण्णाहेह, सण्णाहेत्ता मम एयमाणत्तियं खिप्पा- सेनां सन्नह्यत, सन्नह्य मम एतामाज्ञप्तिं क्षिप्र- शीघ्र ही मेरी इस आज्ञा का प्रत्यर्पण करो। मेव पच्चप्पिणह ॥ मेव प्रत्यर्पयत। १७५. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा कोणिएणं रण्णा ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः कोणिकेन राज्ञा एवम् १७५. कौटुम्बिक पुरुष कोणिक राजा के द्वारा इस प्रकार एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया जाव उक्ताः सन्तः हृष्टतुष्टचित्ताः आनन्दिताः का निर्देश प्राप्त कर हृष्ट-तुष्ट और आनन्दित चित्त मत्थए अंजलिं कटु एवं सामी! तहत्ति आणाए यावन मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवं स्वामिन् ! वाले हुए यावत् अञ्जलि को भाल पर टिका कर विणएणं वयणं पडिसुणंति, पडिसुणित्ता तथेति आज्ञया विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति, बोले-स्वामिन् ! जैसा आपका निर्देश है वैसा ही खिप्पामेव छेयायरियोवएस-मति-कप्पणा- प्रतिशृत्य क्षिप्रमेव छेकाचार्योपदेश-मति-कल्प- होगा, यह कह कर विनयपूर्वक वचन को स्वीकार विकप्पेहिं सुनिउणेहिं उज्जलणेवत्थ-हब्ब- ना-विकल्पैः सुनिपुणेः उज्जवलनेपथ्य-'हव'- किया, स्वीकार कर शीघ्र ही कुशल आचार्य के उपदेश परिवच्छियं सुसज्जं जाव भीमं संगामियं -परिपक्षितं सुसज्जं यावद् भीमं सांग्रामिकम् से उत्पन्न मति, कल्पना और विकल्पों तथा सुनिपुण अओझं उदाइं हत्थिरायं पडिकप्पेंति, अयोध्यम् उदायिनं हस्तिराजं प्रतिकल्प- व्यक्तियों द्वारा निर्मित उज्ज्वल नेपथ्य से युक्त, सुसज्ज हय-गय-रह पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं यन्ति, हय-गज-रथ-प्रवरयोधकलितां चतुर- थावत् भीम, सांग्रामिक, अयोध्य-जिसके सामने कोई सण्णाति, सण्णाहेत्ता जेणेव कूणिए राया ङ्गिणी सेनां सन्नह्यन्ति, सन्नह्य यत्रैव कोणिकः लड़ने में समर्थ न हो-हस्तिराज उदाई को सज्ज किया, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरि- राजा तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य करतल- अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धा से युक्त चतुरङ्गिणी ग्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट परिगृहितंदशनखं शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं सेना को सन्नद्ध किया, सन्नद्ध कर जहां राजा कूणिक कूणियस्स रण्णो तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति॥ कृत्वा कोणिकस्य राज्ञः ताम् आज्ञप्तिं प्रत्य- है वहां आए, आ कर दोनों हथेलियों से निष्यन्न सम्पुट र्पयन्ति। वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा कर मस्तक पर टिका कर राजा कूणिक को उस आज्ञा का प्रत्यर्पण किया। भाष्य १. कुशल आचार्य रूप-परिपक्षित है। छेक-नुिपण, आचार्य-शिल्प का उपदेशदाता । नायाधम्मकहाओ में परिवस्थिय पाठ है। ओवाइयं में भी परिवत्थिय पाठान्तर है। उसके आधार पर 'उज्ज्वल परिधान को धारण कर' अर्थ घटित होगा। 'हव्व' के स्थान पर 'वत्थ' भी मिलता है। २. उज्ज्वल नेपथ्य से युक्त उज्ज्वल परिधान' को शीघ्र परिगृहीत कर । परिवच्छिय का संस्कृत १. आप्टे. नेपथ्य- attired २. नाया. १/१६/२४७–तयाणंतरं च णं छेयायरिय-उवदेस-मइ-कप्पणा-विकप्पेहिं सुणिउणेहिं उज्जल-णेवस्थि-हत्थ परिवस्थियं ... । ३. ओवा. सू ५७ (तेरापंथी महासभा का संस्करण) ४. नाया. १/१६/२४७ (देखें इसी पृष्ठ का पाद टिप्पण २) Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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