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________________ भगवई ३८५ श.७:उ.६:सू.१६७-१७३ जाव यावत पुद्गलों का ग्रहण कर वैसा करने में समर्थ है यावत् १७१. असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले असंवृतः भदन्त ! अनगारः बाह्यकान् पुद्ग- १७१. क्या असंवृत अनगार बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण अपरियाइत्ता पभू निद्धपोग्गलं लुक्खपोग्गल- लान् अपर्यादाय प्रभुः स्निग्धपुद्गलं रूक्ष- किए बिना स्निग्ध स्पर्श वाले पुद्गल को रूक्ष स्पर्श ताए परिणामेत्तए ? लुक्खपोग्गलं वा निद्ध- पुद्गलत्वेन परिणामयितुम् ? रूक्षपुद्गल वा वाले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है? पोग्गलत्ताए परिणामेत्तए? स्निग्धपुद्गलत्वेन परिणामयितुम् ? अथवा रूक्ष स्पर्श वाले पद्गल को स्निग्ध स्पर्श वाले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है? गोयमा! नो इणढे समढे । परियाइत्ता पभू॥ गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । पर्यादाय प्रभुः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर वैसा करने में समर्थ है। १७२. से णं भंते किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता स भदन्त ! किम् इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय १७२. भन्ते ! क्या वह मनुष्य-लोक में स्थित पुद्गलों का परिणामेति ? तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता परिणमयति ? तत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय ग्रहण कर परिणत करता है ? अथवा गन्तव्य स्थानवर्ती परिणामेति? अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता परिणमयति? अन्यत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत करता है ? अथवा इन परिणामेति? परिणमयति? दोनों से भिन्न किसी अन्य स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत करता है? गोयमा! इहगए पोग्गले परियाइत्ता परिणामेति, गौतम ! इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय परिणम- गौतम ! वह मनुष्य-लोक में स्थित पुद्गलों का ग्रहण नो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता परिणामेति, नो यति, नो तत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय परि- कर परिणत करता है, गन्तव्यस्थानवर्ती पुद्गलों का अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता परिणामेति॥ णमयति, नो अन्यत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय ग्रहण कर परिणत नहीं करता, इन दोनों से भिन्न परिणमयति। किसी अन्य-स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत नहीं करता। भाष्य १. सूत्र १६७-१७२ द्रष्टव्य भ.६/१६३-१६७ का भाष्य । महासिलाकंटयसंगाम-पदं महाशिलाकंटकसंग्राम-पदम् १७३. नायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, विण्णा- ज्ञातमेतद् अर्हता, श्रुतमेतद् अर्हता, विज्ञात- यमेयं अरहया---महासिलाकंटए संगामे। मेतद् अर्हता-महाशिलाकंटकः संग्रामः। महासिलाकंटए णं भंते ! संगामे वट्टमाणे के महाशिलाकंटके भदन्त ! संग्रामे वर्तमाने कः जइत्था? के पराजइत्था? अजैषीत् ? कः पराजेष्ट? गोयमा ! वज्जी, विदेहपुत्ते जइत्था, नव मल्लई, गोतम ! वजी, विदेहपुत्रः अजैष्टाम्, नव नव लेच्छई-कासी कोसलगा अट्ठारस वि मल्लई', नव 'लेच्छई'--काशीकौशलकाः गणरायाणो पराजइत्था॥ अष्टादश अपि गणराजाः पराजेषत । महाशिलाकंटक संग्राम-पद १७३ 'यह अर्हत् के द्वारा ज्ञात है, यह अर्हत् के द्वारा स्मृत है, यह अर्हत् के द्वारा विज्ञात है-महाशिलाकंटक संग्राम। भदन्त ! महाशिलाकंटक संग्राम में कौन जीता? कौन हारा? गोतम ! वज्री (इन्द्र) और विदेहपुत्र (कूणिक) जीते। नौ मल्ल नौ लिच्छवी-काशी कौशल के अट्ठारह गणराज हारे। भाष्य १. सूत्र १७३ संग्राम का उल्लेख नहीं है। चेटक और कोणिक (कूणिक) के युद्ध का वर्णन भगवती' और बौद्ध साहित्य में मगध सम्राट अजातशत्रु विदेहिपुत्र और वज्जी निरयावलियाओ-इन दो आगमों में मिलता है। भगवती में युद्ध की पृष्ठभूमि गणराज्य के बीच युद्ध का वर्णन प्राप्त होता है, किन्तु वहां पर चेटक के नाम वर्णित नहीं है, केवल महाशिलाकंटक और रथमुसल इन दो युद्धों का वर्णन है। का उल्लेख नहीं मिलता। निरयावलियाओ में युद्ध की पृष्ठभूमि का विशद वर्णन है। उसमें महाशिलाकंटक आश्चर्य है कि वैदिक साहित्य में इसका कोई उल्लेख नहीं है। १.भ.७/१७३-२१०। ३.(क) बुद्धचर्या-महापरिनिव्वाणसुत्त, पृ०४५४-४५७। २.निरया. १/E४-१४१॥ (ख) दीघनिकाय, महावग्गट्टकथा, २/३, पृ०६५,६६। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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