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मूल
असंवुड - अणगारस्स विउव्वणा-पदं
१६७. असंबुडे गं मंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए?
जो इट्टे समझे ॥
१६८. असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए ?
हन्त भू ।
१६६. से णं भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकु ? तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्यई? अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्बइ ?
गोयमा ! इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ, नो तत्थगए पोम्गले परिवाइत्ता विकुव्वाइ, नो अण्णत्यगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्बइ।
एवं २. एगवण्णं अनेगरूवं ३. अणेगवण्णं एमरूवं ४. अणेगवण्णं अणेगरूवं - चउभंगो ॥
नवमो उद्देसो : नवां उद्देशक
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संस्कृत छाया
असंवृतानगारस्य विक्रिया-पदम् असंवृतः भवन्तः ! अनगार बाह्यकान् पुद गलान् अपर्यादाय प्रभुः एकवर्णम् एकरूपं विकर्तुम? नो अयमर्थः समर्थः ।
असंवृतः भदन्त । अनगारः बाह्यकान् पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुः एकवर्णम् एकरूपं विकर्तुम् ? हन्त प्रभुः ।
स भदन्त ! किम् इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुरुते ? तत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुरुते ? अन्यत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुरुते ?
गौतम ! इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुरुते नो तत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुरुते नो अन्यान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुरुते ।
एवम् २. एकवर्णम् अनेकरूपम् ३. अनेकवर्णम् एकरूपम् ४. अनेकवर्णम् अनेकरूपम् — चतुर्भगः ।
१७०. असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले अपरिवाइत्ता पशू कालगं पोग्गलं नीलगपोग्गलाए परिणामेत्तए ? नीलगं पोग्गलं वा कालगपोग्गलत्ताए परिणामेत?
असंवृतः भदन्त ! अनगारः बाह्यकान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः कालकं पुद्गलं नीलकपुद्गलत्वेन परिणामयितुं ? नीलकं पुद्गलं वा कालकपुद्गलत्वेन परिणामयितुम्?
गोयमा । नो इण समट्टे। परियाइत्ता पभू गीतम ! नो अयमर्थः समर्थः । पर्यादाय प्रभुः
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हिन्दी अनुवाद
असंवृत अनगार की विक्रिया का पद
१६७. 'भन्ते ! क्या असंवृत अनगार बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण किए बिना एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करने में समर्थ है ?
यह अर्थ संगत नहीं है।
१६८ भन्ते ! क्या अंसकृत अनगार महिती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करने में समर्थ है ?
हाँ, समर्थ है।
१६६. भन्ते ! क्या वह मनुष्य-लोक में स्थित पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है ? अथवा गन्तव्यस्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है ? अथवा इन दोनों से भिन्न किसी अन्य स्थानवर्ती पुदगलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है?
गौतम ! वह मनुष्य-लोक में स्थित पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है, गन्तव्य स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण नहीं करता, इन दोनों से भिन्न किसी अन्य स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर निर्माण नहीं करता।
इस प्रकार २. एकवर्ण और अनेक रूप का निर्माण ३. अनेक वर्ण और एक रूप का निर्माण ४. अनेक वर्ग और अनेक रूप का निर्माण – यह धीमंगी है।
१७०. भन्ते ! क्या असंवृत अनगार बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण किए बिना कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल को नील वर्ण वाले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है? अथवा नील वर्ण वाले पुद्गल को कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है । वह बहिर्वर्ती
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